शिक्षा का गिरता स्तर जिम्मेदार कौन?

         
                शिक्षा का गिरता स्तर जिम्मेदार कौन? 

               शिक्षा क्या है? शिक्षा एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म से मृत्यु पर्यंत इस प्रक्रिया से गुजरता हुआ कुछ न कुछ सीखता ही रहता है। अगर हम शिक्षा की आज तक की गई तमाम परिभाषाओं को एक साथ रख दे और फिर कोई शिक्षा का अर्थ ढूंढे तो भी हमें कोई ऐसा अर्थ नहीं मिलेगा जो अपने आप में पूर्ण हो। वर्तमान में शिक्षा का अर्थ केवल स्कूली शिक्षा से लिया गया है।  

             वर्तमान में शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार को लेकर जो घमासान मचा है उस परिप्रेक्ष्य में आज गाँधी-नेहरू और के. टी. शाह के बीच हुई बहस का एक संस्मरण कौंध गया जिसे लिखना आज की शिक्षा के संदर्भ में जरूरी है।                 

             स्वतंत्रता के पूर्व जब जवाहर लाल नेहरूजी देश की भावी शिक्षा नीति का मसौदा तैयार कर रहे थे तो गाँधीजी ने के. टी. शाह से पूछा कि आप भावी भारत की शिक्षा कैसी चाहते है? इस पर के. टी. शाह ने उत्तर दिया कि हम ऐसी शिक्षा चाहते है जिसमें किसी कक्षा में अगर मैं यह सवाल करूँ कि मैंने चार आने के दो सेब खरीदे और उन्हें एक रुपये में बेच दूँ तो मुझे क्या मिलेगा? तो सारी कक्षा एक स्वर में जवाब दे आपको जेल मिलेगी, दो वर्ष का कठोर कारावास मिलेगा। यह उदाहरण हमें यह बताता है कि हमने स्वतंत्रता के पूर्व शिक्षा की किस नैतिकता की अपेक्षा की थी? किंतु आज शिक्षा शब्द ने अपने अंदर का अर्थ इस कदर खो दिया है कि आज न उसके अंदर का संस्कार जिंदा है और न व्यवहार। शिक्षा अपने समूचे स्वरूप में अराजकता, अव्यवस्था, अनैतिकता और कल्पना हीनता का पर्याय बन गई है। शिक्षा के जरिये अब न आचरण आ रहा न चरित्र, न मानवीय मूल्य, न नागरिक संस्कार, न राष्ट्रीय दायित्व एवं कर्तव्य बोध और न ही अधिकारों के प्रति चेतना। आज प्रत्येक वर्ग में शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर चिंता जताई जा रही है। शिक्षा के गिरते स्तर पर लंबी-लंबी बहसे होती है। और अंत में उसके लिए शिक्षक को दोषी करार दिया जाता है। 

        जो शिक्षक स्वयं उस शिक्षा का उत्पादन है और जहाँ तक संभव हो रहा है मूल्यों, आदर्शों व सामाजिक उत्तर दायित्व के बोध को छात्रों में बनाये रखने का प्रयत्न कर रहा है, तमाम राजनीतिक दबावों के बावजूद। आज बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के साथ-साथ जनगणना, आर्थिक गणना, बालगणना, पशुगणना, पल्स पोलियो से लेकर मतदाता सूची तैयार करना, मतगणना करना और चुनाव ड्यूटी तक तमाम राष्ट्रीय कार्यक्रमों को पूरी कुशलता से करने वाला शिक्षक इतना अकर्मण्य और अयोग्य कैसे हो सकता है? हालांकि इसके लिए काफी हद तक यह बात भी सही है कि स्कूलों में शिक्षक पढ़ाते नहीं है। शिक्षक वक्त पर पहुँचते नहीं है। शिक्षक वैसा शिक्षण नहीं करते जो गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की श्रेणी में आता है। आये दिन किसी मुद्दे को लेकर हड़ताल पर चले जाना और स्कूलों की छुट्टी हो जाना आम हो गया है। शिक्षार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यालय जाते है। लेकिन वहां शिक्षक ही नदारद रहते है। ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्न लगना लाजिमी है। लेकिन यह बात भी तो सही है कि बहुत से शिक्षक है जो ईमानदारी से पढ़ा रहे है। उनके बच्चों में शैक्षिक गुणवत्ता की दक्षताएं है। इसके लिए सभी शिक्षक दोषी कैसे? साथ ही अधिकांश सरकारी स्कूलों में आपको ऐसे बच्चे भी देखने को मिल जाएंगे कि एक ही कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों का शैक्षिक स्तर अलग-अलग है ऐसा क्यों है? यह भी एक विचारणीय बिंदु है। उद्देश्यों और मूल्यों का सवाल आते ही कई लोग आदर्शवाद की धारा में बह जाते है। वे उन भौतिक परिस्थितियों को भूल जाते है जिनसे उद्देश्यों पर अमल किया जाना है, जिनमें मूल्यों को जीवन में उतारा जाना है। शिक्षा के गिरते स्तर के लिए शिक्षक दोषी है या यह शिक्षा व्यवस्था और उसको अपने हित में नियंत्रित निर्मित करने वाली आर्थिक राजनैतिक शक्तियाँ? गिरते स्तर के लिए उत्तर दायित्व निर्धारण हेतु शिक्षा से जुड़े घटकों यथा समाज, प्रशासन, शिक्षक पाठ्यक्रम स्वयं छात्र इत्यादि पर एक दृष्टि डालना उचित होगा। 

        शिक्षा के गिरते स्तर के कारण उसकी गुणवत्ता पर प्रश्न खड़ा होना लाजिमी है। लेकिन इस बात के जिम्मेदार कौन लोग है। इस ओर न तो राजनीतिक मंथन हो रहा ना ही सामाजिक चिंतन किया जा रहा है। 

       बातें शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की अकसर सुनने में आती है। किन्तु सुधार कहीं नजर नहीं आता “अभी कुछ दिनों से शिक्षा विभाग में बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार को लेकर संकुल स्तर से लेकर राज्य स्तर तक के अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा एक नाटक खेला जा रहा है। जिसमें बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता की जाँच की जा रही है, टेस्ट ले रहे है। वह भी कैसे की जो स्कूलें 45 प्रतिशत उत्क्रष्ट घोषित है उन्हें आज शाम को उन स्कूलों के शिक्षकों को बेसलाइन टेस्ट हेतु पेपर दिये। जिसमें दो टेस्ट थे प्रथम टेस्ट और अंतिम टेस्ट। प्रत्येक टेस्ट में भाषा, गणित और अंग्रेजी की लगभग सभी मूलभूत दक्षताओं का टेस्ट लेना है। और कहा की कल प्रथम टेस्ट लेना व परसों अंतिम टेस्ट और आपको प्रथम टेस्ट के बाद अंतिम टेस्ट में बच्चे की गुणवत्ता में सुधार भी बताना है यह कैसे और कहाँ तक संभव है? यहाँ तक तो ठीक है लेकिन स्कूलों में शिक्षकों पर दबाव डाला जा रहा है कि उनकी स्कूल गुणवत्ता पूर्ण की श्रेणी में आ जाए। जिले, विकास खण्ड, संभाग और राज्य स्तर तक के शिक्षा विभाग से जुड़े अधिकारी स्कूलों में जा रहे है और निरीक्षण कर रहे है। अधिकारी गण शिक्षकों को फटकारनुमा समझाइश देते है कि गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को हासिल करें।  

        यह कैसी विडंबना है कि स्कूलों में शिक्षक पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा स्थापित करने का भारी दबाव तो है मगर उसे गुणवत्तोपूर्ण शिक्षा के लिए तैयार ही नहीं किया गया। उल्टे शिक्षकों को प्रतिमाह प्रशिक्षण के बहाने कक्षा शिक्षण से दूर करने की साजिश रची जा रही है। इस साजिश के तहत देश की भोली भाली जनता को यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि शासन को उनके बच्चों की खूब परवाह है। लेकिन उनके जो शिक्षक है वह सही तरीके से काम नहीं कर रहे है, जिसके कारण उनके बच्चे शैक्षिक गुणवत्ता में पिछड़ रहे है। सरकार की गलत शिक्षा नीतियों के जो दुष्परिणाम आज सामने आ रहे है उनमें सुधार करने कि बजाय इसका ठीकरा शिक्षकों के सिर फोड़ा जा रहा है जो कहाँ तक उचित है? सरकार दोष देने के बजाए शिक्षकों को क्षमतावान बनाएं” यह कहना है शैक्षिक कार्यकर्ता श्री कालूराम शर्माजी का। 

         आज इस बात पर भी गौर करना है कि जिन बच्चों की शिक्षा के बारे में सरकार गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की बात कर रही है वे बच्चे किस तबके से आते है? उनकी सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, शैक्षिक स्थिति के साथ स्वास्थ्य की स्थिति क्या है? क्या ये कारक इन बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे है? यदि हाँ तो फिर सरकार और उनके ये उच्च अधिकारी इस बारे में क्या सोचते है और क्या कर रहे है? 

        आज यह स्पष्ट हो चुका है कि सरकार की दोषपूर्ण शिक्षा नीति के साथ सरकारी विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है। वर्ष भर शासकीय शिक्षकों से कई प्रकार के गैर शैक्षिक कार्य लिए जा रहे है। जिससे वह अपने छात्रों को पूरा समय नहीं दे पाते और उनके छात्र पढ़ाई में पिछड़ जाते है। निजी विद्यालय बुनियादी सुविधाओं का उचित प्रबंध रखते हैं। 

           श्री सतीश चन्द्रा के अनुसार “आज सरकारी और निजी विद्यालयों में फर्क बहुत साफ नजर आता है। दोनों की पढ़ाई के स्तर में जमीन आसमान का अन्तर है। इसकी एक वजह सरकारी विद्यालय के प्रधानाध्यापकों के पास अधिकारों का अभाव है। निजी विद्यालय के प्रधानाध्यापकों के पास असीमित अधिकार होते है।“ यह शिक्षा के निजी करण का नकारात्मक पहलू भी है। आज हालात यह है कि शहरों के साथ-साथ गांवों में भी जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह प्राईवेट स्कूल खुल गए है। लोगों का अंग्रेजियत का मोह साथ ही साथ प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ के कारण 70 से 80 प्रतिशत बच्चे प्राईवेट स्कूलों में दर्ज हो गए है। 

           सरकारी विद्यालय की शिक्षा की आलोचना दलित चिंतक चन्द्रभान प्रसाद भी करते है। वे कहते है, “आज गरीब से गरीब आदमी से बात कीजिए, चाहे वह रिक्शा चालक हो, रेहड़ी लगाता हो या दिहाड़ी मजदूरी करता हो। इनमें से कोई भी अपने बच्चे को सरकारी विद्यालय में नहीं पढ़ाना चाहता। सभी निजी विद्यालयों की ओर भाग रहे, वह भी अंग्रेजी माध्यम की ओर। सर्व शिक्षा अभियान योजना के माध्यम से स्कूल न जाने वाले बच्चों का रुझान स्कूलों की तरफ होना यह साबित करता है कि शिक्षा पाने के लिए हर कोई गंभीर है। लेकिन शासकीय व्यवस्था को देख कर लोगों का मोह भंग हो रहा है। जिससे पैसे वालों के बच्चे निजी स्कूलों मे पढ़ाई करते है। 

             शिक्षा के निजीकरण ने समाज के उच्च वर्गो के स्वार्थ के लिए अमीरों और गरीबों के बीच विषमता को बढ़ाने का काम किया है। आज सरकारी स्कूल में समाज के सबसे पिछड़े वर्ग व अति गरीब वर्ग के बच्चे ही सरकारी शिक्षा का अभिशाप झेलने के लिए विवश है। गौर करने वाली बात है कि जब हमारे देश में शिक्षा के बीच खाईं बनी हुई है। तो उससे शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्न खड़ा होगा। एक तरफ सरकार शिक्षा में सुधार की योजनाएं बनाने में दिलचस्पी दिखाती है। तो दूसरी ओर योजनाओं के सही क्रियान्वयन की ओर कोई सकारात्मक पहल क्यों नहीं की जाती है? इससे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा  का ग्राफ दिन प्रति नीचे की ओर जायेगा। 

              सरकार शिक्षा में किए जा रहे भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाये तो शिक्षा की गुणवत्ता कायम हो सकती है। बहरहाल यदि गरीब का बच्चा विद्यालय जाता है और उसे सही शिक्षा नहीं दी जाती है और वह शासन की तमाम योजनाओं के बावजूद अनपढ़ रह जाता है तो यह सरकार के लिए एक शोचनीय प्रश्न है। और सरकार को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। जिससे शिक्षा के लिए चलाई जा रहीं योजनाओ का सही लाभ जरूरतमंदो को मिल सके। और सबसे अहम बात यह है कि सरकार शिक्षा मे किये जा रहे भेदभाव को मिटाने की ओर पहल करे । 

            देश में समान शिक्षा प्रणाली लागू हो सभी के लिए एक जैसा पाठ्यक्रम हो जिससे देश मे समरसता का वातावरण बने और शिक्षा के निजीकरण ने समाज के उच्च वर्गो के स्वार्थ के लिए अमीरों और गरीबों के बीच विषमता को बढ़ाने का काम किया है वह कम हो सके। यहाँ हम सरकारी स्कूलों में दर्ज कक्षा पहली से आठवीं के विद्यार्थियों की शिक्षा-दीक्षा व शैक्षिक स्तर की बात कर रहें है। 

          कभी तुमने सोचा है कि उस शिक्षक के दिल पर क्या बीतती है जब वह रात दिन अपने बच्चों को पढ़ाने में लगाता है। वह उनके लिए वे सब कुछ करता है जिससे उनका शैक्षिक स्तर सुधरे लेकिन सब कुछ करने व सभी तरीके से पढ़ाने के बाद भी वह बच्चों के शैक्षिक स्तर को सुधार नहीं पाया तो उसकी पीढ़ा को कौन समझेगा? 

          किसी शिक्षक का काम आसान नहीं है। अगर ऐसा लगता है तो 250 बच्चों वाली स्कूल को दो दिन संभालकर देखिए या फिर उन गरीब मजदूर वर्ग जिनके अधिकांश बच्चे देर सबेर घर का काम करने के साथ-साथ कुछ मजदूरी भी करते है। इन बच्चों को पढ़ाइए और बाकी जिम्मेदारी निभाइए। तीसरे दिन गुरूजी प्रणाम कहकर निकल लेंगे और तारीफ भी करेंगे कि सर यह पूरा सिस्टम चलाना आपके ही बस की बात है। इसलिए उनकी आलोचना से पहले उन स्थितियों के बारे में सोचिए, जिसमें वे काम करते हैं। जिस तरह की सामाजिक आलोचना और अधिकारियों की प्रताड़ना का शिकार होते हैं। इस तरह के नजरिए से किसी शिक्षक को देखना काफी दिलचस्प होगा। कोशिश करके देखिए, आलोचना तो सब कर ही रहे हैं। 

          आज शिक्षा बाजारीकरण का दंश झेल रही है। इस ओर शासन की गंभीरता का आलम यह है कि वह कई योजनाएं  शिक्षा के बेहतरी के लिए चला रहा है। लेकिन उन योजनाओ की दशा और दिशा की ओर कोई सकारात्मक पहल नहीं हो रही है। जिस कारण योजनाओं का सही लाभ नहीं मिल पा रहा है। हलांकी शिक्षकों की बेहतरी के मामले शासन का नजरिया सकारात्मक नहीं होना ही इस गिरते स्तर का प्रमुख कारण है। 

 कैलाश मण्डलोई

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