प्रभात हो गयी

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और प्रभात हो गयी...

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मन का धुंधला अंधकार
अभी भी रात होने का 
आभास दे रहा है।
आकाश में 
गहरे बादलों के दल
इधर से उधर दौड़ लगा रहे है।
पश्चिम से पूर्व की और 
गुजरती धरा 
अपने यात्रियों को
शीतल हवा के सुखद झोंको की
थपकियाँ दे कर नींद से जगा रही।
धीरे-धीरे आकाश पर
सिंदूरी किरणों के रंग 
उभरने लगे।
दिन का उजाला 
फूट चुका 
उजाले की भनक पाकर 
अँधेरा 
अपनी चादर समेटकर 
झाड़ियों की 
झुरमुट में 
छिपने की कोशिश कर रहा है।
तभी  
पर्वतों की चोटियों से
फिसलती धूप 
घाटियों में अठखेलियाँ करने लगी 
और प्रभात हो गयी।
और वह
मन की अज्ञानता हटते ही 
ज्ञान के आलोक में विचरण करने लगा। 
कैलाश मण्डलोई "कदंब'

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