पँछी बोले


सूरज की सुर्ख लालिमा से,

सारा पूरब भर गया।
अभी-अभी था घना अंधेरा,
चुपके-चुपके किधर गया।
स्वर्ण समय पुकार रहा,
समय नही है सोने का।
बोले पँछी जागो।।
अम्बर से रवि रश्मियां,
देखो कैसे उतर रही।
स्वर्णमयी सी ओस बूंद को,
धीरे-धीरे कुतर रही।
स्वर्ण समय बचा ले अपना,
समय नहीं है खोने का।
बोले पँछी जागो।।
पाकर गर्मी ओस बूंद भी,
धीरे-धीरे सिमट रही।
जूही की वह बेल नवेली,
मोंगरे से लिपट रही।
अभी हँस ले और गा ले,
समय नहीं है रोने का।
बोले पँछी जागो।। 
चूँ-चूँ करते निकले पँछी,
नीड़ से अपने-अपने।
नन्ही-नन्ही आखों में,
लेकर नन्हे सपने।
तेरे मेरे की झूठी गठरिया,
समय नहीं अब ढोने का।
बोले पँछी जागो।।




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