कैसी सभ्यता है? ------------------ यह कैसी उपज है? जो गाँव, शहर हर बस्ती में उपजती झुग्गी झोपड़ियां, गंदी बस्तियां कौन उपजाता है इन्हें? जहाँ रेंगते हैं बरसाती कीड़ों की तरह भूख, गरीबी, बीमारी अवसाद से लदे फलों के जीव मंडराते मच्छरों की तरह प्रकाश के इर्द गिर्द रोते अपने भाग्य पर कहते दुःख दर्द जब बारिश के मौसम में भीगता परिवार रोटी और पेट की आपाधापी में खाली जेब लिए नापते सड़कें लौट आते घर बासी चेहरे लिए फिर पाँव पसारती अनैतिकता अंकुरित होते जुर्म के बीज जिन्हें खाद पानी मिलता सभ्य कहे जाले वाले शोषक वर्ग के शोषण से इन्हें झोपड़ीयों पर तरस आता जब हटती झोपड़ीयाँ महल बनने के लिए खो जाती है इनकी अस्मिता टूटती झोपड़ियों की उड़ती धुल में। उग आते हजारों प्रश्न चिन्ह
ये कैसी सभ्यता है?
जिनका जवाब मेरे पास नहीं तब मुझे मेरा थोथा, निर्लज्ज, सड़ा गला आदर्श धिक्कारता की हम सभ्य कहलाते।
घर और उसका प्रभाव-बच्चों में संस्कार दे
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मनुष्य के विकास को ले कर एक बार एक प्रयोग किया गया. दो बच्चों को उन के
जन्मते ही घने जंगल में गुफा के भीतर रख दिया गया. उन्हें खाना तो दिया जाता
था...
इसमें फूल भी है, काँटे भी है, गम के संग खुशी भी है।चुन लो आपको जो अच्छा लगे। शब्दों की कमी इस संसार में नहीं है- पर उन्हें चुन-चुन कर मोती सा मूल्यवान बनाना बड़ी बात है। बस ज्ञान-विज्ञान, भाव-अभाव, नूतन-पुरातन, गीत-अगीत, राग-विराग के कुछ मोती चुन रहा हूँ। कुछ अतीत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञान मोतीयों से मन के धागे में पिरोकर कविता, कहानी, गीत व आलेखों से सजा गुलदस्ता आपको सादर भेंट।
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