सड़ा गला आदर्श


कैसी सभ्यता है?
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यह कैसी उपज है?
जो गाँव, शहर हर बस्ती में उपजती 
झुग्गी झोपड़ियां, गंदी बस्तियां 
कौन उपजाता है इन्हें?
जहाँ रेंगते हैं 

बरसाती कीड़ों की तरह  
भूख, गरीबी, बीमारी 
अवसाद से लदे फलों के जीव
मंडराते मच्छरों की तरह
प्रकाश के इर्द गिर्द
रोते अपने भाग्य पर
कहते दुःख दर्द
जब बारिश के मौसम में भीगता परिवार
रोटी और पेट की आपाधापी में
खाली जेब लिए नापते सड़कें
लौट आते घर बासी चेहरे लिए
फिर पाँव पसारती अनैतिकता
अंकुरित होते जुर्म के बीज 
जिन्हें खाद पानी मिलता
सभ्य कहे जाले वाले 
शोषक वर्ग के शोषण से
इन्हें झोपड़ीयों पर तरस आता 
जब हटती झोपड़ीयाँ महल बनने के लिए
खो जाती है इनकी अस्मिता
टूटती झोपड़ियों की उड़ती धुल में।
उग आते हजारों प्रश्न चिन्ह

ये कैसी सभ्यता है?

जिनका जवाब मेरे पास नहीं 
तब मुझे मेरा थोथा,
निर्लज्ज, सड़ा गला आदर्श
धिक्कारता की हम सभ्य कहलाते।  

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