न्याय की तस्वीर से सच का अस्तित्व

न्याय की तस्वीर से सच का अस्तित्व 

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न्याय का नाटक खेलते-खेलते
सच को झूठ बोलते-बोलते 
झूठ को सच साबित करने में 
कितने पारंगत हो गए हम 
बार-बार मन में उठती टीस
कचोटती है अंतरात्मा को
लग जाता मन विकल्प तलाशने में 
नहीं घुसा करती
गरीबों की बिलखती आवाजें 
वैभव की दीवारों में
शान-शौकत की पहरेदारी में  
शंकित, अधीर मेरा मन 
संशय से न्याय नहीं उबरा 
न्याय की तस्वीर का सच 
बंदी जन छूट गए
रोती रही राज व्यवस्था
सत्य दुबका सहमा डरा सा
यह है सच की घिनौनी तस्वीर 
जरूरी नहीं की 
जो तस्वीर सुन्दर लग रही है 
वह सही में सुन्दर ही हो
देख तेरी यह तस्वीर 
देख तुझे रक्त में रंगा जी भर आया
तेरे दुःख में डूब गया 
दुःख बोया सुख खोया नित रोया
मन का सूना कोना 
बार-बार मन में उठती टीस
कचोटती है अंतरात्मा को 
नहीं सिद्ध हुआ 
न्याय की तस्वीर से सच का अस्तित्व 
लग जाता मन विकल्प तलाशने में।  
         कैलाश मंडलोई ‘कदंब’

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