फटी कमीज
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न ओढ़ने को न बिछाने को
ठिठुरन से कंपकंपाती ठंड में
काँपता शरीर
मुंह में बजते दाँत
आधा तन ढाँके
सवाल पूछती फटी कमीज
गरीब आदमी से
क्या तुम्हें ठंड नहीं लगती?
तेज ठिठुरन उसके मुंह से
शब्द नहीं निकले
देख उसकी चुप्पी
रहा न गया फटी कमीज से
और बोल उठी
उत्तर नहीं तुम्हारे पास
इतनी सी छोटी बात का
बड़े सोच विचार के बाद
वह उत्तर देने को उठा
उठते ही जीर्ण शीर्ण कमीज और फट गई
ठंड की सिहरन और बढ़ गई
जमा दिया उसके रक्त को
कर दिया बेजान उसे
बोल उठी उसकी आत्मा
तन से बाहर आ कर
गरीब को ठंड नहीं लगती
उसे धूप नहीं लगती
उसको हवा, पानी, भूख, मकान
कुछ नहीं लगता
सच कहा तुमनें
गरीब का ठंड, हवा, पानी,
भूख से मरना छोटी सी बात है
जैसे अमीरों के लिए फटी कमीज।
कैलाश मण्डलोई "कदंब"
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