बंधन


बंधन अभी ढीले हुए खुले नहीं
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गुलामी की जंजीरों से
कैसे तोड़ूं बंधन? 
सोचे दुर्बल प्राण 
मुक्त नहीं 
संपूर्ण नारी जाति
बंधन अभी ढीले हुए खुले नहीं
तिरस्कार से कुंठित मन।
जारी है 
भावनाओं का दोहन 
बेटी, बहू, पत्नी, माँ के नाम पर
आदर्शों का हवाला देकर।
जनमने से लेकर
जब तक जिंदा है
निचोड़ा जाता है 
उसकी भावनाओं को बार-बार 
किस्मत के नाम पर 
सुशील, संस्कारवान
त्यागमयी, ममतामयी, 
समर्पणवान का लेबल लगाकर।
        कैलाश मंडलोई ‘कदंब’

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