झूठ फरेब


झूठ, फरेब की पौध...
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भीड़ में 
ईमानदारी 
खो गई कहीं 
हर जगह
मानव व्यवहार में  
उग रही 
गाजर घास की तरह 
स्वार्थ, लालच, 
छल-कपट
झूठ, फरेब की पौध। 
झूठ बोलने को 
लपलपाती जिव्हाएँ
न जानें 
कितनी लपलपा रही है
जेलों में, 
न्यायालय में 
राज सत्ता के गलियारे में, 
गीता, कुरान पर हाथ रख कर।
उजले तन
कालिख से पुते मन 
खड़े
ईमान का ओढ़े नकाब
नोचने को, 
खरोचने को 
बंगलों में चमचमाती कारों में।
मुंह पर लगा खून
मस्तक की लकीरे, 
साफ गवाही दे रही 
ये ऐसे गिद्ध, बगुले 
कमल के फूल है जो 
ईमान बेचकर 
बेईमानी, झूठ, फरेब का 
कीचड़ खा कर पलते है।
कैलाश मण्डलोई "कदंब"

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