जिंदा होने के सबूत


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जिंदा होने के सबूत...
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जब मैं देखता हूँ 
अपने आसपास
किसी अनपढ़ बच्चे को 
जो पढ़ सकता था, 
काम करते 
किसी होटल में बर्तन धोते 
अपने वज़न से अधिक भार ढोते
बनती इमारत में ईंट गारा उठाते। 
किसी शोषित, त्रासित गरीब को मिटते
ताकतवर दबंगों से कमजोर को पीटते
धनिक, सूदख़ोरों से असहाय मजबूर को लुटते
भूखे नंगे भिखमंगों को पुल के नीचे 
सड़क किनारे मरते घूँट-घूँट कर जीते 
तब मैं कुछ कर सकता था उनके लिए
मगर कुछ न कर सका उनके लिए
तभी मुझे शक होता
अपने आप पर अपने जिंदा होने पर।
जब मैं सहता अन्याय को 
और देखता अन्याय को 
देता हूँ साथ अन्याय का
तब मुझसे मुर्दे सबूत मांगते 
मेरा जिंदा होने का
और तब मैं 
न कुछ कह पता, न कुछ कर पाता 
लग जाता सबूत जुटाने में
की मैं जिंदा हूँ, मुर्दे सा हो कर 
तब मुझे शक होता अपने आप पर
अपने जिंदा होने पर।

       कैलाश मंडलोई 'कदंब'

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