जज्बातों की फटी चादर मैं सीता हूँ...
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कविता का मैं भूखा हूँ,
कविता का मैं प्यासा हूं,
कविता का रस पीता हूँ,
खाकर कविता जीता हूँ।
देश धर्म का ध्यान धरूँ,
या मैं अपना पेट भरूँ,
दुनिया को क्या मतलब मुझसे,
मैं जीऊँ या मैं मर जाऊँ।
मेरे हिस्से की रोटी छिनी,
छिन गया हिस्से का पानी,
बूँद-बूँद पानी को तरसा,
मैं भूखा मैं प्यासा हूँ।
मेरी भूख इस कदर बड़ गई,
कविता मेरे सिर पर चड़ गई,
आज कल मुझे कुछ भाता नहीं,
और मैं कविता के सिवा,
कुछ खाता नहीं।
कभी प्रेम रस की चासनी में,
डुबोकर कविता को पीता हूँ,
तो कभी यौवन की प्याली में
मैं भौंरा बन,
फूलों का रस पी लेता हूँ।
ऐसे ही जी लेता हूँ,
और कविता के बहाने,
अपने जज्बातों से
जीवन की
फटी चादर को सी लेता हूँ।
कैलाश मंडलोई 'कदंब'
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