बचपन मुसकाने दो

   

बचपन मुसकाने दो 

 अपनी धरती की गोद में एक दुनिया ऐसी भी बसती है, जो गीता कुरान, बाइबिल की तरह पवित्र है। इस दुनिया के लोग जितने ईमानदार है, उतने ही निश्चल और उतने ही बेबाक। जी हाँ, यह उन बच्चों की दुनिया है, जिनके मासूम सवाल बड़े से बड़े विद्वान को हैरानी में डाल देते है। 
    हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था—“काश ! किसी बच्चे की नन्ही उँगली थामकर मैं भी उसकी दुनिया में दाखिल हो पाता। बड़ा अनूठा संसार है इन बच्चों का। उम्मीद से भरी-पूरी है उनकी दुनिया, जहाँ न जंग है, न नफरत, छुआछूत, ऊँच-नीच, लालच, स्वार्थ, खूनखराबा, तू-तू, मैं-मैं, तेरा-मेरा जैसी बुराइयों का कोई नाम तक नहीं। हम सबकी कल की उम्मीदें, हमारे ज्ञान-विज्ञान को, हमारे देश की पावन संस्कृति को, विश्व-वसुधा की मानवता को और बुलंदी देने का प्रमाणपत्र है बच्चे।“ 
    हमने विकास के साथ क्या पाया और क्या खोया कि अगर गणना करें तो बच्चों के हिस्से से हमने उनका बचपन छीन लिया है और उनके बचपन को हमने यांत्रिक बचपन बनाकर रख दिया है। दुनिया भर के वैज्ञानिक, शिक्षाविद् चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे है कि एक सीमा तक बच्चे का शारीरिक-मानसिक विकास हो जाने दें। उसके बाद उसके भीतर के जीन्स खुद चिल्लाकर बताएंगे कि वह क्या पढ़ना चाहता है? मगर हमने उनके साथ क्या किया? अभी-अभी दुनिया में आए नन्हे-नन्हे बच्चे जिन्होंने अपनी उम्र के तीन वर्ष भी पूरे नहीं किए, उन्हें kg1, kg2, में पढ़ने डाल दिया। जो अभी अपने कदमों पर सही ढंग से खड़ा नहीं हो पा रहा है, ऊपर से उसके नाजुक कंधों पर बस्ते का बोझ रख दिया। और फिर होमवर्क ने छिन लिया बच्चों का बचपन।
       बालक जिस उत्साह और उमंग से पार्क, सिनेमा घर या खेल के मैदान में जाता है, वैसा उत्साह, वैसी उमंग स्कूल आने में क्यों नहीं दिखता। वह सतत छुट्टी की घंटी बजने की प्रतीक्षा करने के बजाय अपनी शिक्षा के लिये सतत स्कूल में बने रहने की रुचि क्यों नहीं दिखता? क्योंकि उसे पढ़ाई के साथ-साथ खेल और मनोरंजन भी चाहिए। बालकों का संसार स्वप्न और कल्पनाओं का संसार है, माधुर्य और मनोरंजन का संसार है, कला और क्रीड़ा का संसार है। 
       कहाँ गया वह बचपन। याद करो वो दिन जब आप और हमारे जैसे बच्चे सुबह और शाम को अपने मोहल्ले में टोलियाँ बनाकर घूमा करते थे और दुनिया भर की चिंता से मुक्त होकर खुले आसमान में कभी गिल्ली डंडा खेला करते थे तो कभी किसी बाग में लुका छिपी का खेल खेलकर अपने साथियों को ढुंढा करते थे। बचपन की वो यादें आज भी हमारे जेहन में ऐसे ताजा है कि उनको याद कर हम आज भी खुद को तरोताजा महसूस करते है।
      एक समय था जब बचपन खेल-खेल में निकल जाता था और बचपन का मतलब ही खेल खिलौनों से लगाया जाता था। हर गली मुहल्ले में बच्चों की टोलियाँ अलग-अलग खेल खेला करते थे। कोई लुका छिपी खेलता तो कोई पकड़ा-पकड़ी, गिल्ली डंडा का खेल तो बच्चों का सबसे प्रिय खेल हुआ करता था। इसी के साथ लंगडी खेलना, लहे और लकडी का खेल खेलना, पेल दूज का खेल, धाड धुक्कड का खेल, गुड्डे गुड्डियों की शादी करना आदि-आदि बहुत से ऐसे खेल थे जिनके माध्यम से बच्चे खेल-खेल में बड़े होने के साथ ही समाज की सामाजिकता को सीखते थे।      
      ऐसा प्रायः बहुत कम ही होता है कि किसी विद्यार्थी से पूछा जाए कि उसे अपना स्कूल कैसा लगा। प्रायः यही चिता अधिक रहती है कि विद्यार्थी स्कूल में कैसा है, किस स्तर पर है, कितना सफल है। अधिकतर "बड़ों की दुनिया" में इसी बात की चिता ज्यादा रहती है कि स्कूल को बच्चा कैसा लगा, स्कूल में या सिस्टम में बच्चा कितना फिट रहा। शायद ही कभी किसी बच्चे से यह पूछा जाता हो कि वह अपने स्कूल को पास करेगा या फेल...।
बच्चे की परीक्षाएं तो सभी लेते है, उसे पास-फेल, सफल-असफल तो सभी ठहराते है। पर शिक्षा की परीक्षा कौन लेते है? जाहिर है, इस प्रकार के निर्णयों में बच्चे की सफलता-असफलता के स्तर भले ही ध्यान में रखे जाते हो पर स्वयं बच्चे की इस निर्णय प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं होती।
      जब कुछ बच्चों के शुभ चिंतकों ने बच्चों से बात की तो क्या कहा इन मासूमों ने सुनिए उन्हीं की जुबानी। स्कूल में रहते हुए हम क्या सोचते है, बताएं? हम सोचते है कि कब हमारे स्कूल का चपरसी या वह भी न हो तो कोई बच्चा ही घंटी बजा दे और हम निकल जाए। उनकी बातों से पता चलता है कि स्कूल की जिस अनिवार्य परम्परा से बच्चें सबसे ज्यादा चिड़ते है, वह है—होमवर्क। विशाल नाम का एक बच्चा बताने लगा छह घंटे स्कूल में पढ़ो और घर पहुँचते ही मम्मी का पहला सवाल होता है, कितना होमवर्क मिला। लंच के बाद वे होमवर्क लेकर बैठ जाती है। शाम को ट्युशन लेने जाता हूँ। आठ बजे घर लौटता हूँ, पापा रिवीजन कराते है
       विशाल की बातों में कुछ भी गलत नहीं है। हमारे देश के स्कूल—सरकारी या प्रायवेट बच्चों में होमवर्क कुछ इस अंदाज से ठुसा जाता है, जैसे बोरे में भूसा; जबकि वास्तविकता यह है कि होमवर्क गैर जरूरी है। यूरोप व अमेरीका में बैगलेस स्कूलिंग बीते दिनों की बात हो गई। हमारे यहां तो पीठ व दिमाग, दोनों पर पढ़ाई का बोझ लाद दिया जाता है। होमवर्क को लेकर पूरी दुनिया में कई हजार शोध हो चुके है। उन सब का समवेत निष्कर्ष यही है कि अगर बच्चों को होमवर्क दिया जाता है तो उसके लिए टीचर जिम्मेदार है। या तो वे ठीक से पढ़ा नहीं पा रहा है, या फिर उसके पास ज्यादा बच्चे है। 
       एक बात कहूँ बुरा तो नहीं मानोगे? आप यह भूल जाते है कि कभी आप भी बच्चे थे, कभी आप भी चीखते-चिल्लाते थे, स्याही से आपके भी हाथ सने रहते थे, कपड़े धूल-धूसरीत होते थे, किताबें फटी होती थी, पढ़ने की बजाय खेलने में मन ज्यादा लगता था और उस और उस समय आपको माँ-बाप की सलाह, उपदेश अच्छे नहीं लगते थे। मन ही मन विद्रोह करते थे और अब सब कुछ भूलकर वही करने लगे हो जो आपको बच्चे के रूप में नापसंद था।
      शायद आप नहीं जानते कि गली की निर्दोष धूल बालक को चन्दन से भी अधिक प्यारी लगती है। हवा की मीठी लहरें बालक के लिए माँ के चुंबन से भी अधिक मीठी होती है। सूरज की कोमल किरणें बालक को हमारे हाथ से अधिक मुलायम लगती है, पर हम बच्चों को इन सबसे दूर रखने में ही लगे रहते है। काश; हम बच्चों को समझने की बजाय खुद को समझे, बच्चों को समझाने की बजाय खुद को समझाये, उनका उपचार करने की बजाय अपना उपचार करें। बालक की देह छोटी है, लेकिन उसकी आत्मा महान है। बालक की देह विकासमान है, लेकिन उसकी "आत्मा" तो सम्पूर्ण है। हम उस आत्मा का सम्मान करें। अपनी गलत रीति-नीति से हम बालक की शुद्ध आत्मा को भ्रष्ट और कलुषित न करें। बच्चों को उनका बचपन लौटा दो, फिर उन्हें उनकी खुशियों के संग मुस्कराने दो। 

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1 टिप्पणियाँ

Sudha Devrani ने कहा…
बहुत सटीक...
आजकल के बच्चों का तो बचपन ही छिन गया है..नये जमाने के नये तौर तरीके बच्चों के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं।
बहुत महत्वपूर्ण लेख।