समाधान की आशा में
कैसे मन ये भटक रहा ।।
पल भर न है चैन इसको
यहाँ वहाँ सर पटक रहा।।
सब कुछ इसके पास धरा
यह भटके मारा-मारा।।
लोभ मोह के फंदे में
औंधे मुँह ये लटक रहा।।
धन यौवन को पाकर ये
मद में ऐसा मटक रहा।
भूखे की न भूख जाने
खुद ही खुद ये गटक रहा।।
छल कपट की जाल मन में
हर-पल इसमें अटक रहा।।
लेकर कर्म के दाग को
मंदिर मस्जिद झटक रहा।।
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