गृहिणी


शिकन को भी शिकन आई...
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वह समेटने लगी
बिखरे सपने
खत्म हुई
रात की खामोशियाँ
सुहानी सुबह ने
गृहिणी को
नींद से जगाया 
हल्की सी शिकन माथे पर आई 
उसने ली अंगड़ाई
वह मुसकाई
वह जागी वह भागी 
किचन की ओर
लग गई काम में अपने
शिकन कहीं खो गई।
चल पड़ा कारवाँ
पल भर ना आराम किया
दौड़ी-दौड़ी भागी-भागी
 करती घर की साफ-सफाई
किचन बर्तन टिफिन
बच्चों को, पति को
सब को समय से
सुविधाएँ उपलब्ध कराई
तब चैन की सांस ली
वह मन ही मन मुसकाई
गृहिणी के चेहरे पर
मंद-मंद मुसकान
शकुन, चैन देख 
शिकन को भी शिकन आई
वह दबे पाँव लौट गई और
गृहिणी अपने काम में लग गई।

कैलाश मण्डलोई "कदंब"

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3 टिप्पणियाँ

Vandana namdev ने कहा…
बहुत ही सुन्दर आदरणीय
Vandana namdev ने कहा…
बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय
सादर अभिवादन आदरणीय