चिंतन के अंधेरे क्षितिज पर


चिंतन के अंधेरे क्षितिज पर 
  --------------
कुछ शब्द बुदबुदाये
फूल पात सब बिखर गए
ऐसी चली प्रचंड आंधी
किसे कहे किसे सुनाए 
इंसान ईमान गवा बैठा
दुर्गुणों की 
बाँध पोटली
सद्गुणों को
रौंदते पैरो तले 
श्रम की,
न्याय की,
समानता की, 
मानवता की,
जीवन मूल्यों की, 
बुझाकर मशाल,

जाना था कहाँ?

कहाँ आ गए हम 

चिंतन के अंधेरे क्षितिज पर।


बात कुछ ऐसी हुई
कुछ शब्द
डगमगाते चलते चले गए 
सीधे सपाट 
समतल रास्ते छोड़कर
प्रश्न कुछ लिए हुए
वह न रहा पास मेरे
जिसे होना चाहिए पास मेरे 
वह न रहा उनके पास 
जिसे होना चाहिए 
उनके पास
दुनिया बिगड़ी हम बिगड़े 
गरीब लाचार मजबूर 
ढो रहा दुखों का पहाड़
हम करते 
माडर्न इंण्डिया की बात 
झाँकते शब्द 
झाँकते रहे
राई सी बात का 
पहाड़ बन गया

जाना था कहाँ?
कहाँ आ गए हम 

चिंतन के अंधेरे क्षितिज पर।


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ