असत्य पर सत्य की विजय का पर्व विजयादशमी
विजयादशमी का पर्व हमें असत्य पर सत्य की विजय का संदेश देता है। हजारों वर्षों पूर्व इस भूमि पर मानव इतिहास की एक अभूतपूर्व और अविस्मरणीय घटना घटी। इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने रावण का वध किया था। इसी दिन को स्मरण करने लिए प्रतिवर्ष हम विजयादशमी का उत्सव मनाते हैं जिसमें रावण के पुतले का दहन किया जाता है। और हम यह कल्पना करते हैं कि आज सत्य की असत्य पर जीत हो गई और अच्छाई ने बुराई को समाप्त कर दिया। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा नहीं हो पाता है।
राम और रावण के कृतित्व और व्यक्तित्व हमें बुराइयों का त्याग करने एवं सुमार्ग पर चलने की राह दिखाता है। यह परम्पराएं केवल आंख मूंद कर पुतले का दहन कर उत्सव मनाने तक ही नहीं हैं। बल्कि यह परम्पराएं तो हमें इनके पीछे छिपे गूढ़ उद्देश्यों को स्मरण रखने एवं उनका अनुपालन करने के लिए बनाई गई हैं।
अनेक बुराइयों का जन्मदाता था रावण
रावण प्रतीक है अहंकार का, रावण प्रतीक है अनैतिकता का, रावण प्रतीक है सामर्थ्य के दुरुपयोग का एवं इन सबसे कहीं अधिक रावण प्रतीक है- ईश्वर से विमुख होने का। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि अवगुणों के मिश्रित स्वरूप का नाम है रावण ।
हम मनुष्यों में और रावण में बहुत अधिक समानता है। यह बात स्वीकारने में असहज लगती है, किन्तु है यह पूर्ण सत्य। हमारी इस पंचमहाभूतों से निर्मित देह में मन रूपी रावण विराजमान है। इस मन रूपी रावण के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, वासना, भ्रष्टाचार, अनैतिकता इत्यादि दस सिर हैं। यह मन रूपी रावण भी ईश्वर से विमुख है। जब इस मन रूपी रावण का एक सिर कटता है तो तत्काल उसके स्थान पर दूसरा सिर निर्मित हो जाता है।
बुराई के विरुद्ध अपनी भूमिका निभानी होगी
रावण को मिटाना हमारे लिए एक तमाशा होता है। भले ही उसका नाम हम विजयादशमी पर्व दे दें। हम युद्ध के दर्शक बनना चाहते हैं राम की ओर से योद्धा की भूमिका हम नहीं निभाते। रावण रूपी काम क्रोध मद लोभ जैसे दुर्गुणों से निपटने के कई तरीके हमारे धर्म और संस्कृति ने हमें बता दिए हैं। सनातन धर्म अंतर यात्रा में विश्वास करता है। हमारे ऋषि मुनि कह गए हैं कि मनुष्य थोड़ा अपने भीतर झांके। बाहर की दुनिया की आपाधापी से हटकर थोड़ा अपने अंतर्मन पर टिके। इस प्रक्रिया में वह अपने दुर्गुणों पर नियंत्रण पा लेगा लेकिन कुछ दुर्गुण बाहर रह जाते हैं और उनका इलाज भी करना पड़ता है इसलिए हमें बुराई के विरुद्ध अपनी भूमिका निभानी होगी।
चिंतन की उत्कृष्टता का पर्व दशहरा
यह संसार जिन तत्वों से बना है। उसमें भलाई, बुराई, नेकी, बदी, कुरूपता, सुंदरता, अनुकूलता, प्रतिकूलतः के परस्पर विरोधी स्वरों का समावेश है। इन दोनों ही परिस्थितियों से कोई बच नहीं सकता।
संध्या की बेला हो रही है। रावण घर की ओर चला। पर वह देख क्या रहा है? अपनी भुजाओं की ओर देखते चला जा रहा है। यह भुजाएं हैं, जिसने संसार में किसको परास्त नहीं कर दिया, ये वह भुजाएं है जिसने कैलाश सहित भगवान शंकर को उठा लिया। अगर संध्या का समय हम और आप यही सोचने लगे कि मैंने इतने बड़े कार्य किए, मैंने कितना पुरुषार्थ किया, मैं कितना बुद्धिमान, विशिष्ट व्यक्ति हूं, तो निश्चित रूप से हम उसी के अनुयाई होंगे। अपनी महिमा अपना पुरुषार्थ देखने की संध्या रावण की संध्या है।
दुर्गुण शरीर पर चिपकी हुई गंदगी की तरह है उन्हें रगड़ कर धोया और साफ किया जा सकता है। तथ्य यह है कि अपना दृष्टिकोण किस स्तर का है। बगीचे में भंवरे को सुगंध की मस्ती और मधुमक्खियों को शहद की मंजूषाएं लटकती दिखती है, पर गुबरैला कीड़ा पौधों की जड़ों में लगे हुए बड़े गोबर तक जा पहुंचता है और सर्वत्र दुर्गंध ही दुर्गंध पाता है। संसार में बुराई ना हो सो बात नहीं है। पर वे ऐसी है कि उन्हें सुधारने के माध्यम से हम अपना पुरुषार्थ जगा सके प्रगतिशीलता का परिचय दे सके और परिवर्तन ला सकने का श्रेय प्राप्त कर सकें। अनीति ना हो तो संघर्ष किससे किया जाए? शौर्य साहस प्रगट कर सकने का अवसर किस प्रकार आए? दुष्टता की उपेक्षा की जाए या उसे तकते रहा जाए, बढ़ने दिया जाए, यह कोई नहीं कहता रीति नीति को अपना कर कुरूपता को सुंदरता में और दुष्टता को सज्जनता में बदला जा सकता है।
अपने अंतर्मन में छुपे बुराई रूपी रावण को मार कर चिंतन की उत्कृष्टता चरित्र की आदर्शवादिता और व्यवहार की शालीनता अपनाकर मनुष्य ऊंचा उठ सकता है आगे बढ़ सकता है।
सत्कर्म संकल्प का पर्व दशहरा
इस सृष्टि का कुछ ऐसा विचित्र नियम है कि उठते हुए का अनको समर्थन करते हैं। और गिरते हुए को सहारा देने की अपेक्षा और गिराने में अपनी बहादुरी समझते हैं। सहयोग सभी को देना चाहिए और देखना चाहिए कि अपनी सहायता सत्य प्रवृत्तियों के समर्थन में संवर्धन में जा रही है या नहीं। यदि उलटा हो रहा है अपने सहयोग का लाभ उठाकर कोई दुर्जन अधिक दुष्टता पर उतारू होते दिख पड़े तो समर्थन से हाथ खींच लेना ही उचित है। मनुष्य जीवन का एक क्रम है कि सहयोग के सहारे ही लोग समर्थ और प्रगतिशील बनते हैं पर इसमें भी एक बात विचारणीय है कि सज्जनों को सहयोग दिया जाए और उन्हीं से सहयोग लिया जाए। अपना उद्देश्य ऊंचा रखा जाए अपनी सामर्थ्य और हिम्मत पर भरोसा किया जाए, जो काम हाथ में लिया जाए उसे समूची तत्परता और तन्मयता दांव पर लगा दिया जाय। काम इस प्रकार किया जाए मानो उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया गया हो किसी की इज्जत उसके ठाट बात या कौशल के आधार पर नहीं इस आधार पर होती है कि उसने किस प्रकार के काम को कितनी ईमानदारी और जिम्मेदारी से पूरे की है।
अंधकार कितना भी विस्तृत क्यों ना हो पर वह प्रकाश से अधिक मात्रा में नहीं हो सकता संसार में अशुभ कितना ही क्यों ना हो पर वह शुभ से अधिक नहीं है। गंदगी और स्वच्छता का अनुपात लगाया जाए तो स्वछता ही अधिक मिलेगी।
भगवान ने मनुष्य को बुद्धि दी और उस बुद्धि का यही उपयोग है कि उचित अनुचित का विचार करें, लाभ-हानि सोचे और इसके उपरांत किसी निर्णय पर पहुंचे। कोई कदम उठाने से पहले हजार बार विचार कर लिया जाए कि इस प्रयास का क्या परिणाम हो सकता है? यदि श्रेय कर लगे तो ही किसी कार्य को हाथ में लिया जाए और जब लिया जाए तो उसने पूरा मन समय श्रम एकाग्रता पूर्वक इस तरह किया जाए कि उत्कृष्ट स्तर का बन पड़े। कार्य की श्रेष्ठता और समग्रता ही किसी की प्रतिष्ठा का कारण बनती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए विज्ञ जन कर्म ही ईश्वर पूजा है कि बात कहते हैं।
इस प्रकार विजयादशमी एक विजय गीत है। एक जय गाथा है उत्सव प्रिया की प्रतीक्षा का आनंद में पर्यावसान की। एक संघर्ष का विराम है। एक अशुभ का अंत है। एक सत्य की अनगिनत में उतरती ज्योति है।
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