इच्छाएँ जिनका आदि न अंत


इच्छाएँ जिनका आदि न अंत
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उसने सोचा
अभी मेरे खेलने के दिन है
खूब खेला
अभी पढ़ने के दिन है
खूब पढ़ा
पढ़ लिखकर नोकरी लगी
शादी हुई पत्नी आई बच्चे हुए
बच्चों की शिक्षा की फिक्र
पढ़ाने लगा बच्चों को
बच्चे बड़े हुए उनकी शादी की फिक्र
कभी रिश्तों जाल में उलझा
कभी भावनाओं के भँवर में फंसा
सुख खोया नित रोया
क्या काटा क्या बोया
कभी वह समझ न पाया
भावनाओं की भूख बुझी नही
बढ़ती गई तृष्णा
भावनाओं के बहाव में बहते-बहते
इच्छाओं के पीछे भागते-भागते
उम्र बीती 
पहुंचा अंतिम पढ़ाव पर
उसने देखा अनगिनत इच्छाओं को
जिनका न कोई आदि न अंत 
कर ले कोई चाहे कितने जतन
कभी न हो पाएगा इच्छाओं का अंत
अंत समय वह 
कुछ कहना चाहता था
मगर कह ना पाया
जुबान लड़खड़ा गई
परिवार वाले समझे 
इनका अंत समय है 
और आँख लग गई
इच्छाएँ वहीं की वहीं रह गई
भावनाएँ वहीं की वहीं रह गई
जाते-जाते जिंदगी कुछ कह गई
समझने वाले समझ गए
ना समझ की समझ से 
बात निकाल गई
और जिंदगी इच्छाओं को
अंतिम विदा कह गई।




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