समय से पूर्व स्मार्ट होते बच्चे कैसे दिशा दे पालक?

            समय से पूर्व स्मार्ट होते बच्चे कैसे दिशा दे पालक?

    माली धरती को उपजाऊ बनाकर उसमें उत्तम बीजों का बीजारोपण करता है ताकि उसमें उत्तम किस्म के स्वास्थ्य पौधे पैदा हो, फूल और फल पैदा हो। परिवार में बच्चों की धारणा भी इसी सिद्धांत पर आधारित है। बालक चाहे कोई भी क्यों ना हो वातावरण उससे अच्छा अथवा बुरा बना देता है।

     वर्तमान युग आधुनिक युग है एवं अगर इससे कंप्यूटर युग कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस पीढ़ी के बच्चे पुरानी पीढ़ी के बच्चों की बजाय ज्यादा स्मार्ट एवं टेक्नोलॉजी पसंद है। वे सभी आधुनिक चीजों का परिपक्व व्यक्ति की बजाय ज्यादा तरीके से उपयोग करता है। मोबाइल तथा कंप्यूटर पर तो मानो उसकी उंगलियां ऐसे चलती है जैसे कोई पियानो पर संगीत बजा रहा हो। बच्चों का बचपन अब बचपन नहीं रहा।

      पहले घर से बाहर आउटडोर गेम खेले जाते थे क्रिकेट कबड्डी खो-खो पतंगबाजी अब इनकी जगह टीवी एवं इंटरनेट और वीडियो गेम्स ने ले ली है। आज के बच्चों में मोटापा तथा आंखों पर चश्मा जैसी समस्याएं आम है। टीवी के सामने निरंतर बगैर आंखें झपकाए बैठी यह पीढ़ी लगातार बैठकर तथा खा पीकर अपना वजन तो बड़ा ही रही है बाह्य दुनिया से कट ऑफ होकर कार्टूनों तथा गेम्स की काल्पनिक दुनिया में जीती जा रही है। जिसका परिणाम भाई बहनों के बीच वह एक खिलौने को लेकर होने वाली मान-मनोहर न रहकर अब कार्टून न देखने देने पर भाई द्वारा फांसी लगाने तक पहुंच गई है।

      यह सचमुच हमारे लिए एक विचारणीय प्रश्न है कि हम अपने भावी पीढ़ी को क्या दे रहे हैं। माता-पिता पैसे कमाने की मशीन बने हुए हैं। उनके पास अपने बच्चों को देने के लिए सब कुछ है महंगे-महंगे गिफ्ट, कपड़े, माल शॉपिंग, खाने पीने की बहुत सारे मार्केट प्रोडक्ट बस नहीं है तो सिर्फ समय। समय जो बेहद जरूरी है। माना कि समय के साथ माता-पिता दोनों का ही काम करना लगभग अवश्य ही मान लिया गया है। लेकिन एक क्वालिटी टाइम तो पालक अपने को अपने बच्चों को दे सकते हैं। उनकी प्रतिदिन की गतिविधियों में उनके साथ जुड़ना, स्कूल की बातें, मित्रों की बातें साझा करना, सुख दुख बांटना तथा सिर्फ उनकी ही नहीं सुनना अपने हालातों से उन्हें अवगत कराना। मुश्किल परिस्थितियों में अगर आप अपने बच्चे को विश्वास में ले तो वह आपका एक बहुत बड़ा संबल बन सकता है। जरूरत है उसके मन को समझने की उसके सपनों को सहेजने की तथा उसके आने वाले कल के जीवन में आशा के नए रंग भरने की।

       क्योंकि माता पिता के हाथ में तो वह तूलिका है जो बच्चों के सपनों को साकार भी कर सकती है। तथा उसमें रंग भी भर सकते हैं। इतिहास को झांक कर देखें तो जहां शिवाजी, वीर शिवाजी मां जीजाबाई की वजह से बने। नन्ही इंदिरा भारत की लौह महिला इंदिरा अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरु की वजह से बनी।

             बचपन के संबंध में धारणाएं व मिथक

     बचपन के संबंध में बहुत ही धारणाएं रही है पर आज वह एक मिथ्या साबित हुई है। बच्चों के बारे में अक्सर हमारी यह धारणा होती है कि वह अबोध है। नासमझ है। बातों को ठीक से समझ कर उसके अनुरूप व्यवहार नहीं कर सकता। लेकिन कई बार बच्चा अपनी गतिविधियों से हमें इस तरह इशारा करता है कि वह न सिर्फ काफी कुछ समझ सकता है वरुण उसके अनुसार अपनी प्रतिक्रिया भी दे सकता है। बालमन अबोध तथा अल्हड़ तो है लेकिन मूर्ख नहीं। एक औसत बुद्धि वाला बालक अपने आसपास होने वाली घटनाओं के प्रति प्रतिक्रिया कर अपनी संवेदनशीलता का परिचय देता है। अतः बच्चा नासमझ नहीं हो सकता है।

 

       सबसे बड़ी धारणा बालक को दंड देकर सुधारा जा सकता है। क्या सचमुच उचित है? क्या बालक में तथा जेल में बंद कैदी में कोई अंतर नहीं? बालक के साथ दंडात्मक व्यवहार कर हम कुछ समय हेतु उसकी भावनाओं को दमित कर सकते हैं। लेकिन भावनात्मक रूप से उसे नियंत्रित अथवा संतुलित नहीं कर सकते। उसकी भावनाएं कभी भी उग्र रूप ले सकती है। कहा भी गया है कि बालक तो स्वयं में ऊर्जा का भंडार है। अपार ऊर्जा है उसमें। जरूरत है उसकी नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में बदलने की। एक बढ़ता हुआ बालक बहुत से परिवर्तनों से गुजरता है। वह मानसिक भी होती है, शारिरिक भी तथा सामाजिक भी। इतने सारे परिवर्तनों को झेलता बालक दंड का प्रयोग करने पर ढिढ तथा विद्रोही बन जाता है। अतः वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने भी इस तथ्य को मान लिया है कि बालक को उचित परामर्श तथा निर्देशन देकर शिक्षित किया जाए। न कि दंड देकर उसे शिक्षा देने का प्रयत्न किया जाए। इसका यह तात्पर्य भी नहीं है कि माता-पिता या शिक्षक बालक की हर उचित अनुचित मांग को माने। नहीं जरूरत पड़ने पर डांट फटकार तथा तिरस्कार पूर्ण व्यवहार भी करना पड़ता है। लेकिन एक सीमित मात्रा में। यह ध्यान में रखना होगा कि हर चीज की एक सीमा होती है। प्यार की भी तथा तिरस्कार की भी। अति सर्वत्र वर्जयेत अति हर बात की बुरी होती है। अतः एक सामंजस्य  पूर्ण व्यवहार जरूरी है। जहां माता-पिता को अपना सम्मान बरकरार रखते हुए बच्चे का मित्र बनना है। संरक्षक बनना है।

              एक और धारणा है वह ऐसा नहीं था

     एक और धारणा है वह ऐसा नहीं था अपने आसपास के परिवेश से सुनकर समझ कर वह सब सिखा है। और परिपक्वता की बातें कर रहा है। लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि बेशक वह परिपक्वता की बातें कर रहा है लेकिन है तो वह सिर्फ एक अल्हड़ बालक। जिसने शायद सुन सुनकर बोलना सीख लिया है। लेकिन उनका अर्थ उसे नहीं मालूम है। हमें समझना होगा कि बच्चे अब बच्चे नहीं रहे मैच्योरिटी की बातें करते हैं यह काफी हद तक सही है। तथा इसके लिए जिम्मेदार वर्तमान वातावरण है। इसके लिए हम सिर्फ बच्चे को दोष नहीं दे सकते। क्योंकि जब उसका जन्म हुआ था मां के गर्भ से तब वह अबोध था।

      टीवी पर आते रियलिटी शो में अक्सर हम बच्चों को बड़ों के सामने बातें करते तथा गतिविधियां करते हुए देखते हैं। जो 

 बच्चों पर नकारात्मक सोच को बढ़ाते हैं। पलकों को यह निरंतर बताने की जरूरत है कि बेटा यह सिनेमा है। यह टीवी है।एक काल्पनिक कहानियों के सीरियल है। इनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। जब बालक यह समझ जाएगा तो वह इसको भी एक खेल अथवा कहानी की तरह दिखेगा। एंजॉय करेगा तथा भूल जाएगा। ना कि उसका अनुसरण अपने जीवन में करने का प्रयास करेगा। इस तरह बच्चों का बचपन सुरक्षित रखा जा सकता है। एक बच्चा वह सेतु है जो दो पुलों माता तथा पिता को अपने स्नेह के बंधन से बांधे रखता है।

                  आजकल के बच्चे बहुत फरमाइशें करते हैं

     अक्सर यह भी कहा जाता है कि आजकल के बच्चे बहुत फरमाइशें करते हैं। पर अगर इस बात की तह में जाया जाए। तो मांग आई कहां से? मांग पूर्ति से आई। जब-जब मांग की गई पूर्ति हो गई। तो ख्वाहिशों का पिटारा बढ़ता ही गया तथा उसमें कोई ब्रेक नहीं लगा। जबकि ब्रेक लगाने हेतु हैंडब्रेक अभिभावक के हाथ में है। हमने अक्सर बुजुर्गों कहते हुए सुना है कि हमारे जमाने में बच्चे हम से डरा करते थे। लेकिन आज माता-पिता बच्चों से डरते हैं कि वह कहीं गुस्सा ना हो जाए। बच्चे के लिए लाड़ प्यार तो जरूरी है लेकिन जरूरत से ज्यादा लाड़ प्यार, नजरअंदाज करना तो बच्चे के लिए अच्छा नहीं वरन उसकी उन्नति में बाधा है। इसलिए एक सीमा रेखा तय होनी चाहिए कि यहां तक तुम्हारी फरमाइश पूरी की जाएगी या बच्चों को उत्साहित करने हेतु कुछ लक्ष्य निर्धारित किए जाने चाहिए कि उन्हें पूरा करने पर तुम्हें पुरस्कार मिलेगा। इससे बालक में मेहनत करने की ललक जगेगी व सही दिशा में कार्य करने की भावना का उदय होगा।

               बचपन सिर्फ खेल तथा सपना नहीं

      यह भी एक धारणा है कि बचपन सिर्फ खेल तथा सपना है। बचपन तो गुड्डे गुड़ियों से खेलना तथा सुनहरे सपने देखना है। लेकिन क्या ऐसा वास्तव में है? नहीं, बचपन एक खेल नहीं है। क्योंकि बचपन तो वह नींव है जिस पर बालक के आगामी जीवन की इमारत खड़ी होती है. एवं अगर नींव ही कच्ची होगी तो इमारत मजबूत कैसे बनेगी।

    बहुत से अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि बड़े-बड़े अपराधियों का बचपन सुखद नहीं था। वह बचपन से ही कुछ ऐसी आदतों का शिकार हो गए थे जिन्होंने उन्हे अंधेरे में धकेल दिया तथा अपराध करने हेतु प्रेरित किया। सही परवरिश एक बचपन को सुखद मोड़ देती है। वही गलत परवरिश सिर्फ भटकाव। वर्तमान में बच्चों की सुरक्षा हेतु बहुत सी से संस्थाएं हैं. जो सराहनीय कार्य कर रही है वह न केवल उन्हें पढ़ा रही है। वरन् उनके आने वाले जीवन के लिए उन्हें व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित भी कर रही है।

    बालक के लिए बचपन की रातें सपनीली तथा सुनहरी होनी चाहिए। उन पर अनावश्यक चिंता का बोझ नहीं होना चाहिए। उनका मस्तिष्क सजग तथा चेतन होना चाहिए। उन्हें इतना पता होना चाहिए कि उनका कौन सा कर्म उन्हें क्या परिणाम देगा। होंठों पर उजली हंसी सजी होनी चाहिए तथा वाणी से निकलते शब्द स्पष्ट एवं मधुर होने चाहिए।

      आज के बच्चों का बचपन मां की लोरी सुनकर नहीं वरन टीवी पर बजते गानों में बिकता है। इसलिए अभिभावकों को चाहिए कि वह उनके लिए इस समय निर्धारित करें। प्रतिदिन टीवी देखने का समय तथा काम करने का समय। सादगी निर्धारण से बच्चा समय पर प्रबंध सीखता है। जो उसके भविष्य में काम आता है।

     माता-पिता बच्चे के नौकर नहीं वरन उसकी देखभाल करने वाले सर रक्षक है। जिनके संरक्षण में वे फलते फूलते हैं। माता-पिता वे माली है जो फूलों को सहेज कर रखते हैं तथा खाद पानी देकर बड़ा करते हैं। जरूरी है कि बालक को शुरू से ही अपने छोटे-छोटे कार्य करने की आदत डाली जाए जैसे अपने कपड़े, जूते, किताबें आदि यथा स्थान रखना। अपनी अलमारी व्यवस्थित रखना तथा अपना यह काम नियमित रूप से करना तथा समय से खाना, पीना, खेलना तथा सोना अगर बचपन से ही इन स्वस्थ आदतों का विकास बालक में हो गया तो निश्चय ही उसका एक स्वतंत्र व्यक्तित्व बनेगा। तथा ऐसा व्यक्तित्व होगा जिसे हर कोई पसंद करेगा सराहना करेगा तथा उन माता-पिता से अवश्य मिलना चाहेगा जिनकी व संतान है। बच्चों के कुछ अच्छा करने से जहां में माता-पिता का नाम रोशन होता है वही उनकी गलतियों का खामियाजा भी समाज की बातें सुनकर उन्हें भुगतना पड़ता है।

            बालमन जिद्दी होता यह भी एक धारणा है

      बालमन जिद्दी होता यह भी एक धारणा है जो अक्सर लोगों की जुबान पर है। बाल हट तो सर्वदा विदित है। लेकिन बाल हट को किस तरह पूरा किया जाए जिससे कोई गलत संदेश उस बालक तक ना पहुंचे। ऐसा करने में ही माता-पिता की कारीगरी है। उनकी परवरिश की परीक्षा है. उनके धैर्य का इम्तिहान है। बालक स्वभावतः जिद्दी अवश्य होता है लेकिन अगर उसका ध्यान दूसरी तरफ लगा दिया जाए तो वह अपनी जिद छोड़ कर दूसरे कार्यों में व्यस्त हो जाता है। अक्सर कहा जाता है कि बच्चे ऊर्जावान होते हैं। उन्हें काम में लगाए रखो वह आपको बिल्कुल भी परेशान नहीं करेंगे। वरन उनके खेल उनकी किलकारियां देखकर आप अपने सारे तनाव भूल जाएंगे। सच तो यह है कि बालक ध्यान पाने के लिए सारी क्रियाएं करता है। वह सबके ध्यान का केंद्र बिंदु बनना चाहता है। उसे यह ध्यान नहीं मिलता वह विद्रोह का बिगुल बजा देता है. रोना पीटना मचा देता है। अगर ध्यान पूर्वक उसकी गतिविधियों को देखा जाए तथा उनमें शामिल हुआ जाए तो वह मस्त रहता है। अतः बालक पर ध्यान देकर उसे ऊर्जावान बनाना चाहिए ना की जिद्दी।

     आज बहुत से ऐसे खिलौने सृजनात्मक सामग्रियां बाजार में आ गई है जिनके द्वारा बालक मस्त भी होता है तथा सीखता है। जिससे उसकी बुद्धि तीव्रतम व प्रखर होती है. तथा उसमें सकारात्मक विचारों का विकास होता है।

               बचपन तो गलतियों का दोहराव है

       बचपन में गलतियां होना स्वाभाविक है। यह सत्य है कि बचपन तो गलतियों का दोहराव है यह सिद्धांत पर आधारित है। जिसमें कहा जाता है कि हम गलतियां कर सीखते हैं। बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी सफलता को पाने से पहले न जाने कितने असफल प्रयोग करते हैं। बचपन इससे अच्छा है क्योंकि बचपन की गलतियों को सुधारने हेतु माता-पिता तथा शिक्षक है। अतः इन गलतियों को सुधार कर वह बालक के जीवन को एक नवीन मोड़ देते हैं। एवं गलतियां करते-करते अचानक बालक सही कार्य करने लगता है। बालक करके सीखता है यह बालक में किसी भी कौशल को विकास करने का सबसे महत्वपूर्ण तथा कारगर तरीका है। बालक के मस्तिष्क की शिक्षा हेतु शारीरिक अंगों का उचित प्रशिक्षण दिया जाए। लिखने से पहले पढ़ाया जाए। वर्णमाला के अक्षर सिखाने से पहले ड्राइंग सिखाई जाए। अनुभव द्वारा सिखने को स्थान दिया जाए तथा बालक के सीखने की प्रक्रिया में समय स्थापित किया जाए। बालक में असीम शक्ति तथा जिज्ञासा है। अतः हर बालक की व्यक्तिगत विभिन्नता को ध्यान में रखकर उसकी शिक्षा का प्रबंध किया जाए। बालकों को पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए। बालकों में विशेष तरह की आदत डाल कर उनको आदतों का दास न बनाए जाए। इसके लिए जरूरी है कि उनके शिक्षण उचित व्यवस्था होना चाहिए।

       निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि बच्चों के भले बुरे हर कार्य हेतु माता पिता को ही उत्तर दाई माना जाता है। अतः अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ नहीं सकते। मुश्किल यह है कि मां-बाप बचपन की अनुभूतियों को बुला बठते हैं। और इस तरह सही रूप से अपने मां-बाप होने का उत्तर दायित्व नहीं निभा पाते। बच्चों के विकास के लिए निर्माण के लिए जिस प्रकार का जीवन जीने की और अवलोकन की क्षमता आवश्यक है वह विरले लोगों को ही प्राप्त होती है। बच्चे के लिए उसका पिता उसके जीवन का पहला हीरो होता है। जिसके जैसा वह बनना चाहता है। तथा हीरो बनने के लिए मेहनत तो करनी पड़ती और वह मेहनत करता है।   

 

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