तिरस्कार से कुंठित मन है,
सोचे दुर्बल प्राण विवश है।
घिरा घन तिमिर हृदय में,
भावों का आवेश प्रबल है।।
मर्यादाओं के बाँध फोड़कर,
अश्लीलता की ओढ़ केंचुली।
संस्कारों से मुंह मोड़कर,
मैला चुगते हंसा चोंच ली।।
आदर्शों की कमर तोड़कर,
मानव स्वर्णिम जीवन से उबा।
बदला खान-पान आहार-विहार,
कंटक कुपथ व्यसन में डूबा।।
सीधी सच्ची राह छोड़कर,
सब मानव दौड़े अंधी दौड़।
हम संस्कारों से पिछड़ गये,
झूठ दिखावे की लगी होड़।।
आधुनिकता की चमक धमक में,
मात-पिता गुरु सम्मान भूले।
दुर्गुणों की बाँध पोटली,
सब सद्गुण चादर ओट ली।।
सद्गुणों को रौंदते पैरो तले,
कहाँ चल पड़ी युवा पीढ़ी।
कैसे हो संस्कार जीवित?
अब चिंतन की है बात बड़ी।।
1 टिप्पणियाँ
सब मानव दौड़े अंधी दौड़।
हम संस्कारों से पिछड़ गये,
झूठ दिखावे की लगी होड़।।
बहुत ही सुन्दर सार्थक एवं चिन्तनपरक सृजन
वाह!!!