◆ देवहरण घनाक्षरी ◆
(शिल्प~8,8,8,9/ अंत में तीन लघु)
भूख से बिलखे मन,
चिथड़ों से ढका तन,
रोटी मिले मिटे भूख,
तन ढके कर जतन।
खाली पेट जले आंत,
आँख धसी है गहरी,
जैसे सूखी कुईं दिखे
बुझ गये सब सपन।
धूप से झुलसे तन,
सूना है मन आँगन,
कब पिघलेगा मन,
अब तो बुझाओ तपन।
हम सब मिलकर,
दुःख मिटाये इनके,
सुख से झोली भर दे,
प्रेम संग रहे मगन।
कैलाश मंडलोई ‘कदंब’
◆ सूर घनाक्षरी ◆
शिल्प~(8,8,8,6 वर्ण चरणान्त में लघु या गुरु दोनों मान्य)
देशभक्ति मन धरे,
प्राण न्योछावर करें,
सीमा की सुरक्षा करें,
शत्रु को भगाये।
बर्फ गिरे आँधी चले,
सूरज आग उगले,
सैनिक मोर्चा सम्हाले,
उमंग जगाये।
गोली सीने पर खाये,
प्राण अपने गवाये,
यहीं छोड़ सब जाये,
प्रेरणा जगाये।
झंडा ऊँचा सदा करें
आओ याद उन्हें करें,
हृदय भावना भरें,
आज गीत गाये।
कैलाश मंडलोई ‘कदंब’
(4)
पावक छंद
शिल्प
[भगण मगण भगण गुरु]
(211 222 211 2)
10 वर्ण प्रति चरण,
4 चरण,2-2 चरण समतुकांत।
काम भरा ही मेरा तन है।
लोभ भरा ही मेरा मन है।।
काम मिटा दो मेरे तन से।
लोभ हटा दो मेरे मन से।।1।।
मोहन मेरी झोली भर दो।
संकट भागे ऐसा वर दो।।
आन खड़ा हूँ द्वारे तुम रे।
आस जगी है काटो तम रे।।2।।
भोग लगाओ लाया मन से।
बोझ हटा दो मेरे मन से।।
अर्पण है तेरा ही तुझको।
दाम लगा क्या है जो मुझको।।3।।
(4)
शंकर छंद
विधान–26 मात्रा,/16,10 पर यति,
अंत वाचिक भार 21,
चार चरण,क्रमागत दो-दो चरण तुकांत
हे प्रभु ज्ञान दाता ज्ञान दो,
नहीं मुझमें ज्ञान।
सत कर्म का शुभाशीष मिले,
दीजिये सद ज्ञान।।
सुंदर रूप बसा मन तेरा,
नहीं दूजा ध्यान।।
द्वार खड़ा मैं आन तिहारे,
दीजिये वरदान।।
कैलाश मंडलोई ‘कदंब’
(5) पृथ्वी संरक्षण (दोहे)
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मानव लांघ मत अपनी, सीमाओं को देख।
दानव बनता जा रहा, मिटा धरा का लेख।।1।।
खेत बना वन काटते, किया धरा का नाश।
पशु पक्षी आवास मिटा, खुद का किया विनाश।।2।।
खाद दवा खूब छिटका, बंजर हो गए खेत।
माटी के गुण खतम हुए, बनती माटी रेत।।3।।
धरती माता का बड़े, तापमान दिन रात।
ताप मिटे उपाय करो, पौधों का हो बात।।4।।
मिलकर कोई बात हो, बन जाये अब बात।
संग धरा के न्याय हो, मिटे सकल संताप।।5।।
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