डॉ० भीमराव अम्बेडकर के विचारों एवं दर्शन
बाबा
साहब आम्बेडकर का पारिवारिक इतिहास
14 अप्रैल सन् 1891 में मध्यप्रदेश के महू में सूबेदार रामजी व भीमाबाई के घर एक पुत्ररत्न पैदा हुआ। सूबेदार रामजी व भीमाबाई से उत्पन्न इस चौदहवीं सन्तान का नाम 'भीम' रखा गया। भीम को उसकी माँ एवं बुआ (मीराबाई) प्यार से 'भिवा' कहकर पुकारती थीं। भीम अपनी माँ को 'बय' कहता था। भीम जब ढाई-तीन वर्ष का था तब उसके पिता 25 वर्ष तक सेना में नौकरी करने के बाद 1894 ई. में सेवानिवृत्त हो गये। कुछ समय महू में बिताने के बाद रामजी अपने परिवार सहित पैतृक गाँव आम्बावड़े के पास दापोली आ गये। दापोली के मराठी स्कूल में भीम के बड़े भाई आनन्दराव की शिक्षा शुरू हुई तथा इसी स्कूल में भीम ने भी श्रीगणेश लिखने का शुभारम्भ किया।'
रामजी एवं उनका परिवार दापोली में अधिक दिनों तक नहीं ठहर पाया क्योंकि प्रथमतः वहाँ का वातावरण भीमाबाई को पसन्द नहीं आया और द्वितीयतः उस समय रामजी को 50 रु० मासिक पेन्शन मिलती थी जो पारिवारिक खर्च के लिये पर्याप्त नहीं थी। फलस्वरूप वे दापोली छोड़कर अपने पूरे परिवार सहित 1896 ई. में सतारा (बम्बई) आ गये। वहाँ की जान-पहचान और प्रयास के कारण उनकी सतारा के सरकारी सार्वजनिक काम के विभाग (पी.डब्लू.डी.) के दफ्तर में स्टोरकीपर (कोठारी) के पद पर नियुक्ति हुई। उन्होंने सतारा के महारवाड़ी के नज़दीक ही अपना घर बसाया।
भीम बचपन में शरीर से काफी चुस्त और मस्त किन्तु नटखट था। वह हमउम्र बच्चों को खूब पीटता था। पिता रामजी भीम को धमकाते ज़रूर थे, परन्तु उसको मारते नहीं थे- शायद इसलिये कि उनको भीम के उज्ज्वल भविष्य का कुछ आभास सा हो गया था। परन्तु भीमाबाई कभी-कभी भीम को खूब पीटती थी। ऐसे समय में भीम की रक्षा उसकी बुआ मीराबाई करती थी। जब रामजी का सतारा से गोरेगाँव तबादला हो गया तो वे अकेले गोरेगाँव में रहने लगे। इधर भीमाबाई बीमार हो गयीं और दिन-प्रतिदिन हालत खराब होती चली गयी। अन्त में एक दिन सारे परिवार को रोता-बिलखता छोड़कर 1896 ई. में भीमाबाई चल बसी। भीमाबाई की मृत्यु के बाद सारा परिवार अनाथ जैसा हो गया। कई दिनों तक भी 'माँ' को याद करके रोता रहा। माँ की मृत्यु के बाद भीम व आनन्द राव का लालन-पालन उनकी बुआ मीराबाई ने किया। यह रामजी की बड़ी बहन थी जो पति से अनबन के कारण मायके में ही रहती थी। माँ से वंचित भीम पर उसका अतिशय प्रेम था। वह उसका लाडला था। परन्तु मीराबाई के पंगु होने के कारण घर का सारा काम नहीं हो पाता था इसलिये रामजी सूबेदार ने शिरकावले नामक सेवानिवृत्त जमादार की बहन 'जिजाबाई' नामक विधवा स्त्री से पुनर्विवाह कर लिया। भीम इस बात को सहन नहीं कर पाता था। वह अपनी सौतेली माँ को माँ के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर पाया। उसका मन सदैव कचोटता रहा। कभी-कभी वह सौतेली माँ से झगड़ पड़ता था और फिर भीमाबाई को याद करके रोने लगता था।
डॉ. आम्बेडकर ने अपने बचपन के बारे में कहा है कि- "मेरे बचपन के
बारे में कहूँ तो मुझे उसके बारे में आश्चर्य महसूस होता है। बारह-तेरह साल का
होने तक मेरे बारे में सभी लोगों का ऐसा विश्वास था कि यह बच्चा वंश को कालिख लगा
देगा। इसके हाँथों कुछ नहीं होगा। मैंने बारह-तेरह वर्ष की उम्र तक लंगोटी के सिवा
दूसरा वस्त्र नहीं पहना। इसके सिवाय घर-घर जाकर गाँव की स्त्रियों से पूछताछ करता
कि क्या तुम्हारी लकड़ियाँ चीरनी है। पहले-पहल मुझे शिक्षण का कोई मूल्य ही महसूस
नहीं होता था। माँ की मृत्यु के बाद मेरी परवरिश बुआ ने की। मुझे लगता था कि
पढ़-लिखकर क्या करना है ? छः महीने मैंने कुंजड़े का धन्धा
किया। मिलिट्री कैम्प में बाग-बगीचे थे। वहाँ के कुंजड़ों के लड़कों से दोस्ती की।
कंकर-पत्थर हटाये, जगह साफ की, नल से
बाग को पानी देना था पर जम नहीं पा रहा था। तब मैंने घर की खपरैले निकाली और उनसे
नालियाँ बनायीं कुछ ऐसी ही मेरी जिन्दगी रही।'
भीम के पितामह मालोजी सकपाल आम्बावड़े गाँव के निवासी होने के कारण उनके परिवार के लोग आम्बावडेकर 'उपनाम से जानते थे। भीम का उपनाम आम्बावड़ेकर था परन्तु उनके एक ब्राह्मण मास्टर जो कि उन्हें अत्यधिक प्रेम करते थे तथा जिनका उपनाम आम्बेडकर था को भीम का उपनाम बोलने में कठिनाई महसूस होती थी फलस्वरूप उन्होंने अपना 'आम्बेडकर' उपनाम भीम को दे दिया तथा वैसा ही स्कूल के रजिस्टर में चढ़ा लिया।' डॉ. भीमराव आम्बेडकर का जन्म अछूत जाति (महार) में होने के कारण उन्हें अपने बचपन के दिनों से छुआछूत व अस्पृश्यता रूपी दानव का भारतीय हिन्दू समाज में सामना करना पड़ा। उन्हें अनेक प्रकार की कठोर यातनाए दी गयीं जिससे उन्हें जीवन के कटु अनुभव हुये फलस्वरूप उनसे संघर्ष करते हुये उन्होंने अपना सारा जीवन दलितोत्थान के लिये समर्पित कर दिया।
जब भीमराव सतारा में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तब उन्हें छुआछूत से सम्बन्धित ऐसे बुरे अनुभव हुये जिन्हें वह जीवन भर नहीं भूल पाये। भीम को अस्पृश्य होने के कारण विद्यालयों में प्रवेश मिलना अत्यन्त कठिन था और यदि उन्हें विद्यालय में प्रवेश अनेक कठिनाइयों के साथ मिलता तो स्कूल में उनके साथ अत्यन्त घृणास्पद एवं छुआछूत का भेद-भाव किया जाता। उन्हें भूमि पर घर से लाये एक टाट के टुकड़े पर अलग उठाना-बैठना पड़ता था ताकि अन्य सवर्ण बच्चे उसे पहचान लें कि वह अछूत है। इच्छा होते हुये भी वह स्कूल के अन्य बच्चों के साथ क्रिकेट, फुटबाल जैसे खेल नहीं खेल सकते थे। अध्यापक उनकी किताबों और कॉपियों को हाथ नहीं लगाते थे। कई अध्यापक तो अस्पृश्य छात्रों से न तो कोई प्रश्न पूछते थे और न ही कविता पाठ आदि करवाते थे क्योंकि वे प्रदूषित एवं अपवित्र होने से डरते थे। भीम स्कूल में नल की टोंटी से स्वयं पानी नहीं पी सकता था। नल की टोटी को जब कोई चपरासी या सामान्य बालक खोलता तब भीम व अन्य अछूत बालक पानी पीते थे। कभी-कभी उन्हें प्यासा रह जाना पड़ता था और घर आकर ही अपनी प्यास बुझाते थे। भीम के स्कूल के रास्ते में एक सार्वजनिक कुआँ पड़ता था जिस दिन उसे स्कूल में पानी नहीं मिलता था उस दिन वह इस कुएँ से पानी पी लिया करता था। कुछ समय बाद वहाँ के सवर्णों को इस बात का पता चल गया और एक दिन सवर्ण हिन्दू उस पर टूट पड़े। उन्होंने भीम की निर्दयता से पिटाई की। भीम एक बालक ही था वह पिटकर रह गया।
जब भीम
सतारा में रहते थे और उनके पिता की तबदीली गोरे गाँव में हो गयी थी तो एक दिन भीम
व उसका भाई आनन्द एवं बहन के बच्चे अपने पिता से मिलने के लिये निकले। मसूर तक
ट्रेन से गये एवं मसूर से गोरे गाँव के लिये रेल सुविधा न होने के कारण सभी बच्चे
एक किराये की बैलगाड़ी में जा रहे थे। बैलगाड़ी के कुछ आगे बढ़ने पर बच्चों के
संवाद से गाड़ीवान ने यह जाना कि ये बच्चे महार के हैं, उसके
रोएं खड़े हो गये। उसे ऐसा लगा कि उसकी गाड़ी महार के बच्चों ने अपवित्र कर दी। वह
गुस्से में आकर उन बच्चों को गाड़ी से इस तरह फेक दिया जैसे टोकरी से कूड़ा-करकट
फेका जाता है। बाद में दुगुना किराया देने की बात करते ही गाड़ीवान इस शर्त पर
तैयार हुआ कि बच्चे ही गाड़ी चलायें और वह पैदल चलेगा। दूसरे दिन बच्चे
भूखे-प्यासे अधमरी स्थिति में गोरे गाँव पहुंचे।'
सतारा में ही भीम जब नाई के पास अपने बाल कटवाने जाता तो नाई उसे अछूत कहकर भगा देता। घर में बहन तुलसी उसे समझाती व शान्त कराकर उसके बाल काटती थी। एक दिन स्कूल जाते समय भीम को रास्ते में अचानक तेज़ बारिश होने लगी। भीम ने पास में एक मकान देखकर उसकी दीवार की ओट में शरण ले ली। मकान की मालकिन जो सवर्ण थी ने भीम से कहा 'ए महार के, तू हमारी दीवार से लगकर क्यों खड़ा है ? क्या तुझे अपवित्र करने के लिये हमारा ही घर मिला है ? चल भाग यहाँ से।" उसने बाहर आकर भीम को बरसते पानी में धक्का दे दिया। वह बरसते हुये पानी में गिर पड़ा। उसकी किताबें, कलम और कॉपियाँ व बस्ता कीचड़ में बिखरकर सन गयी।'
जब भीमराव आम्बेडकर बी.ए. में पढ़ने लगे तो उन्हें यह प्रसन्नता हुई कि
जीवन में पहली बार छुआछूत के दमघोटू वातावरण से बाहर निकलूंगा क्योंकि सभी सहपाठी
और गुरुजन अच्छे विचारों के होंगे परन्तु भीमराव का यह केवल स्वप्न ही था। कॉलेज
के सहपाठियों, प्राध्यापकों और कर्मचारियों से उन्हें
उपयुक्त व्यवहार नहीं मिला जिसके कारण मन में सदैव असंतोष और एक प्रकार की
असुरक्षा का भय व्याप्त रहता।
1917 ई. में जब डॉ. आम्बेडकर को बड़ौदा राज्य से प्राप्त होने वाली छात्रवृत्ति
का समय खत्म हो गया तो वे बड़ौदा महाराजा की आज्ञा को मानकर लन्दन में अधूरा
अध्ययन छोड़कर भारत आ गये और बड़ौदा राज्य की सेवा हेतु पहुँचे। परन्तु वहाँ
उन्हें किसी हिन्दू एवं मुस्लिम होटल में जगह न मिली। सब होटलों के दरवाजे उनके
लिये बन्द थे। बड़ौदा के महाराज को सूचित करने पर भी उनके निवास की कोई व्यवस्था
नहीं हो सकी। हिन्दू समाज, हिन्दू धर्म व हिन्दू संस्कृति से
इस प्रकार से अपमानित होकर डॉ. आम्बेडकर ने अपना नाम बदला और बनावटी पारसी नाम 'एदल जी सोहराबजी' रखकर जहाँगीर जी होटलवाला के पारसी
होटल में रहने लगे।' बड़ौदा महाराजा के मन में डॉ. आम्बेडकर
को वित्तमंत्री बनाने की योजना थी, परन्तु उन्हें विभिन्न
विभागों में काम करने का अनुभव न होने से सेना सचिव पद पर उनकी नियुक्ति हुई।
सचिवालय के अधिकारियों और उनके अधीनस्थ सेवकों ने उन्हें वहाँ शान्ति से काम नहीं
करने दिया। सभी डॉ. आम्बेडकर को तिरस्कार व उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे और
उनको छूने से जहाँ तक हो सके अपने आपको बचाने लगे। मामूली चपरासी भी फाइलें दूर से
डालते या फेंकते थे। डॉ. आम्बेडकर के बाहर निकलते समय वे चटाई तक लपेट लेते थे।
उन्हें कार्यालय में लिपिकों के लिये रखा पीने का पानी तक नहीं मिलता था।
बड़ौदा
में यह बात आम जनता में फैल चुकी थी कि महाराजा एक पढ़े-लिखे महार लड़के को बड़ौदा
लाये हैं और उसको एक ऊँचा पद देना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में बनावटी पारसी नाम
धारण करके पारसी होटल में रहने की डॉ. आम्बेडकर की युक्ति खुल गयी। इसका परिणाम जो
हुआ वह डॉ. आम्बेडकर के अनुसार, "मैं भोजन आदि से
निवृत्त होकर ऑफिस जाने के लिये होटल से बाहर निकला ही था कि हांथों में लट्ठ लिये
15-20 पारसी लोग मुझे मारने के लिये वहाँ आये। उन्होंने पहले
मुझसे पूछा- "तुम कोन हो ?" मैंने कहा- “हिन्दू हूँ।' परन्तु इस उत्तर से उनका समाधान नहीं
हुआ। उन्होंने तू-तू, मैं-मैं करके कहा- "होटल से फौरन
निकल जाओ।" उस समय मेरे मनोधैर्य ने मेरा पूरा साथ दिया। मैंने उनसे
निर्भयतापूर्वक आठ घण्टे की मोहलत मांगी और उन्होंने वह दी। मैं दिन भर निवास के
लिये स्थान प्राप्त करने की कोशिश करता रहा परन्तु मुझे कहीं भी जगह नहीं मिली।
मैं कई मित्रों से मिला। उन्होंने कई बहाने बनाकर मुझे टरका दिया और मैं नहीं सोंच
पा रहा था कि अब मुझे क्या करना चाहिये। आखिर मैं भूख और प्यास से व्याकुल एक पेड़
के नीचे बैठ गया। मेरा मन उद्विग्न हुआ और मेरी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। ऊपर
आसमान और नीचे जमीन, यही डॉ. अम्बेडकर का उस समय सहारा था।
जब डॉ. आम्बेडकर सिडनहैम कॉलेज में नवम्बर, 1918 से अस्थायी प्रोफेसर पद पर 'राजनीतिक अर्थशास्त्र' विषय को पढ़ाते थे तो वहाँ भी छुआछूत का विषाक्त वातारण बना हुआ था। कुछ गुजराती हिन्दू प्रोफेसरों ने डॉ. आम्बेडकर द्वारा स्टाफ के लिये रखे गये बर्तन में से पानी पीने पर ऐतराज़ किया। डॉ. आम्बेडकर को बड़ा दुःख हुआ कि इतने पढ़े-लिखे व्यक्तियों में भी ऐसा अमानुषिक भेदभाव विद्यमान है। डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि हमारी राष्ट्रीय चेतना का आधार भावनात्मक एवं अध्यात्मिक एकता है। राष्ट्र एक जीवन्त आत्मा है, एक अमूर्त तत्व है। इसे बाह्य समानताओं का जामा नहीं पहनाया जा सकता। संघर्ष के सहज सहचर- डॉ० भीमराव अम्बेडकर भारत रत्न से सम्मानित डॉ० भीमराव अम्बेडकर का सम्पूर्ण जीवन दमन शोषण एवं अन्याय के विरूद्ध अनवरत संघर्ष की शौर्य गाथा है। इस भारत देश की यह परम्परा रही है। कि हर स्थान पर महापुरूषों को सम्मान मिला है।
डॉ अम्बेडकर ने नवबौद्ध आन्दोलन चलाया था वास्तव में भारत की इसी आत्मा की खोज में उठाया गया एक सार्थक कदम था जिसका मूल उद्देश्य जाति एवं धर्म की कटुता तथा वैमनस्यता समाप्त करते हुये एक ऐसे समरुप समाज की स्थापना करना था जिसकी आत्मा एक हो और शरीर भी एक हो क्योंकि अध्यात्मिक और भावनात्मक एकता के आधार के होते हुये भी जाति और धर्म भारत की राष्ट्रीय चेतना को चोटिल करने का प्रयास करते रहे हैं। इस आन्दोलन के माध्यम से राष्ट्र और राष्ट्रवाद के इन कंटकों का समूल नाश किया जा सकता है। यह बात डॉ० अम्बेडकर के इस कथन से स्पष्टतः प्रतिध्वनित होती है, "मुझे यह अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते है कि हम पहले भारतीय है और फिर हिन्दू तथा मुसलमान, मुझे यह भी स्वीकार नहीं है कि धर्म, संस्कृति, भाषा तथा राज्य की निष्ठा से ऊपर है-भारतीय होने की निष्ठा। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हो और अंत तक भारतीय ही रहें, भारतीय के आलावा कुछ नहीं" क्या नव बौद्ध आन्दोलन इस भावनात्मक अभिव्यक्ति और सदइच्छा का माध्यम नहीं बन सकता? क्या हम कुछ यथार्थ प्रश्न को विवेचित करने का प्रयास कर सकते हैं। डॉ० अम्बडेकर ने कहा है कि आदमी के मूल्यांकन का मापदण्ड, जन्म न होकर उसकी योग्यता हो। अपनी इच्छाओं को व्यवहारिक बनाने की दिशाओं डॉ० अम्बडेकर ने महाराष्ट्र में अनेक स्थानो पर स्कूल कालेज तथा छात्रावास स्थापित किये। पीपुल्स एज्यूकेशन सोसाइटी' बनायी जिसकी देख-रेख में आज अनेकों शैक्षणिक संस्थायें कार्यरत है।
डॉ० अम्बेडकर एक सच्चे देश भक्त तथा राष्ट्रवादी थे। उनके नये भारत की
कल्पना में भूत एवं वर्तमान का एक सुन्दर समन्वय मिलता है। उन्होंने भारत की बौद्ध
सांस्कृतिक धरोहर को संभाला और संविधान की भूमिका के निहित मूल्यों की प्राप्ति पर
बल दिया, आधुनिक प्रगति से लाभ उठाया जाना चाहिये। डॉ साहब
ने अतिवादी दृष्टिकोण को पसंद नहीं किया। अतीत में जो मूल्य हीन है, उसे त्याग दिया जाये और जो आज प्रासंगिक है उसे ग्रहण किया जाये। वह चाहते
थे कि जाति विहीन समाज की स्थापना हो जिसमें कौमी एकता, राष्ट्रीय
भावना, वैयक्तिक स्वतन्त्रता, समाजिक
एकता तथा धार्मिक सहितष्णुता जैसे आदर्शो का अनुशरण किया जाये, किसी के साथ छुआ-छूत तथा ऊंच-नीच का व्यवहार न हो और सभी नागारिक निर्भय
होकर शन्ति एवं सद्भाव पूर्ण जीवन यापन करे। बहुजन हिताय, बहुजन
सुखाय के बौद्ध सिद्धान्त को व्यावहारिक बनाना चाहते थे। इसी कारण आज सारा देश
उनको नमन करता है।
डॉ. अम्बेडकर के इन प्रयासों के बाजवूद आज आजादी के सात दशक बाद भी यह एक
दुःखद और कटु सत्य है कि यद्यपि राजनीतिक दृष्टि से हम सब समान और स्वतन्त्र है,
परन्तु हमारा देश न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था के मानवीय आदर्शों से
अभी भी बहुत दूर है। मानवीय प्रतिष्ठा तथा बुनियादी मानवीय अधिकारों का हनन हो रहा
है। वास्तविकता यह है कि मानव अस्तित्व के विवाद रहित बुनियादी पहलुओं के लिये
संविधान और कानून में ऊँचे आदर्शपूर्ण प्रावधान अवश्य है, लेकिन
समाज के कुछ विशेष वर्ग हमारे क्रूर अत्याचार दमन और उपेक्षा का शिकार होते रहे
हैं। जातिवाद का दुष्प्रभाव जिसने शताब्दियों से भारत को कमजोर एवं दुर्बल बनाया
है उससे आज भी भारतीय जीवन अभिशप्त है।
युग पुरूष डॉ० भीमराव अम्बेडकर सामाजिक नव जागरण के अग्रदूत थे। उन्होने
शिक्षा के प्रति अपना नजरिया बिलकुल साफ रखा। डॉ० साहब ने हर समय किताबों के बीच
रहना पसंद किया। वे सदा पुस्तकों से घिरे रहते थे। प्रतिदिन पुस्तकालयों में और
पुस्तक विक्रेताओं के पास जाते थे। कोई नई पुस्तक आने पर सबसे पहले वह पुस्तक खरीदने
की कोशिश करते थे उनका मानना था कि ज्ञानोपार्जन ही जीवन है, व्यक्ति ज्ञान के बिना पशु के समान है, व्यक्ति का
सौदर्य ज्ञान है। डॉ० भीमराव अम्बेडकर अपने अध्ययन कक्ष में कई टेबलों पर पुस्तकें
रखते थे और सभी टेबलों पर अलग-अलग विषय की पुस्तकें होती थी, जब एक टेबल पर पढ़ते-पढ़ते थक जाते थे तो थोड़ा चहल कदमी करने के बाद
दूसरी टेबल पर दूसरा विषय पढ़ने लगते थे।
डॉ अम्बेडकर पर एक किताब लिखने वाले लेखक शंकरानंद शास्त्री ने स्वयं देखा
कि डॉ० भीमराव एक विषय को पढ़ते-पढ़ते दूसरी टेबल में पहुंच कर दूसरा विषय पढने
लगे तो उन्होने डॉ० साहब से पूछा, “डॉ० साहब इस प्रकार
लगातार स्थान एवं विषय बदल कर पढ़ने से तो आपके ज्ञान तन्तु थक जाते होंगे"?
डॉ० भीमराव मुस्कराये और कहा, "नही इस
प्रकार पढ़ने से ज्ञान तन्तु थकते नहीं बल्कि उनका व्यायाम हो जाता है। अध्ययन का
अभ्यास होता है और विषय और स्थान बदलने से मस्तिष्क की थकान भी दूर होती है और
पढ़ने की रूचि भी बढ़ जाती है इसलिये अध्ययनशील व्यक्ति को चाहिये कि एक के बाद
दूसरे विषय को पढकर अपने ज्ञान तन्तुओ को आराम दे।'
इससे ये बात साफ हो जाती है कि किस कदर सभी विषय की पुस्तकों
को अपने आस-पास समेटे रहते थे, और हर समय अध्ययन के साथ उनके
मस्तिष्क में निर्बल वर्ग की भलाई सदियों से शोषित दलित लोगों के सामाजिक आर्थिक
एवं शैक्षिक उत्थान की प्रतिध्वनि गूंजती रही। उन्होंने समाज में विद्यमान रूढ़िगत
मान्यताओं और विषमताओं को समूल नष्ट करने, सामाजिक न्याय
दिलाने एवं दलितों को न्यायोचित अधिकार सुनिश्चित करने के लिये जीवन पर्यन्त
संघर्ष किया।समाज के सबसे कमजोर व्यक्ति के लिये स्वाभाविक रुप से ही डॉ० अम्बेडकर
एक महान उद्धारकर्ता, पीड़ा के मुक्तदाता, एक बोधिसत्व के रुप में हैं। दूसरों के लिये भी यह समझ लेना चाहिये कि वे
ऋणकर्ता ही हैं।
डॉ० भीमराव अम्बेडकर की गिनती हिन्दुत्व और भारतीय समाज के महानतम
सुधारकों में की जायेगी। इसी से वे मानववादी जीवन और शान्ति की दिशा में बढ़ सकते
हैं और व्यावहारिक तथा अध्यात्मिक लक्ष्यों को पा सकते हैं। वस्तुतः ऐसे विकास से
ही राष्ट्रीय पुनः निर्माण को समुचित सार्थकता मिल सकती है। और मानव विकास के
सम्यक कल्याण की दिशा में भारत का अविर्भाव एक शक्ति के रूप में हो सकता है,
यही डॉ० भीमराव अम्बेडकर का सपना था जिसे अभी साकार होना है,
जिसमें जाति, धर्म, भाषा,
क्षेत्र की विषम मानसिक अवस्थाओं से पृथक एक आस्था, एक विश्वास, के आधार पर एक सुगठित, सशक्त भारत का निर्माण होगा।
अम्बेडकर एक व्यक्ति का नाम नहीं बल्कि एक विचार धारा का रूप प्राप्त कर चुका
है, जिसे हम अम्बेडकरवाद कह सकते है। यह विचार धारा दलित,
शोषित व्यक्तियों के हक और सम्मान के संघर्ष का प्रतिबिम्ब है।
भारत देश में ही नहीं अम्बेडकरवाद पूरे विश्व की आवश्यकता बनता जा रहा है।
आधुनिक भारत के उचित मागों के संदर्भ में अम्बेडकरवाद की व्याख्या एक शुभ संकेत
है।
निःसंदेह डॉ अम्बेडकर विपरीत परिस्थितियों में पैदा हुए एक अद्भुत,
मिशाल थे जिनकी रोजमर्रा की चिन्ता ही उन लोगों से घिरी थी जिन्हें
पैदा होने का हक तो था परन्तु जीवित रहते हुए जीने का नहीं। अम्बेडकर ने इस
सिलसिले को गति प्रदान करते हुए जीवन को ससम्मान जीने की कला बताया। उन्होने कहा
था "आत्म बल, सम्मान और राष्ट्र प्रेम खोकर जीने से
बढ़कर अपमान कुछ भी नहीं है। यही कारण है कि अम्बेडकर वाद को आज भली प्रकार से
समझने की आवश्यकता है।
डॉ० अम्बेडकर के विचारों में अनेक ऐसे अनछुये पहलू है जिनके विश्लेषण की
आवश्यकता है। डॉ अम्बेडकर न केवल एक विधिवेत्ता थे बल्कि वे एक समाज सुधारक,
मानवतावादी, धर्म प्रवर्तक और राष्ट्रवादी
व्यक्तित्व से भी लैस थे। डॉ० साहब के व्यक्तित्व के इन तमाम पहलुओं में से धर्म
प्रवर्तक के माध्यम से एक सशक्त राष्ट्र निर्माण के पक्ष को स्पर्श करना इस लेख का
उद्देश्य है।
अपने सम्पूर्ण संकल्प तथा ध्येय सहित डॉ अम्बेडकर ने अपने जीवन में भारत
वर्ष के अन्दर प्रस्थापित ब्राह्मणवादी तत्वों के विचारो में धंसे दलित, पीड़ित, श्रमजीवी भोले भाले लोगों के कल्याण हेतु
कार्य किया। उनको इन्सान के नाते जीना आना चाहिए। प्रकृति ने जो भी वस्तुयें या
चित्रों को निर्मित किया है उन सबके उपभोग का सामान अधिकार सबको होना चाहिए,
उनको समाज में विचरण के लिए सामाजिक अधिकार प्राप्त हो. इतना ही
नहीं पूरी दुनिया के सभी देशों को इसका आदर्श स्वीकार कर कार्यान्वित किया जाना
चाहिए जिससे वहां के मानव समुदाय का भी कल्याण हो, इन
आदर्शों को सामने रख कर डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने पुरानी परम्परा वर्ण व्यवस्था,
व्यक्ति वाद, अंधश्रद्धा तथा देव या ईश्वरवाद
के विरूद्ध आजीवन संघर्ष किया। दलित मानवता के जीवन में प्रकाश पुंज बिखेरे,
उनकी आने वाली पीढ़ी स्वस्थ हवा में सांस ले। इस मुद्दे पर डॉ.
अम्बेडकर की चिन्ता जगजाहिर थी।
अम्बेडकर यह समझते थें कि धर्म विशेषकर (हिन्दू) की रूढ़ियों, अंधविश्वासों, आडम्बरों के मकड़जाल में फंसकर समाज
के उस दुर्बल घटक का क्या हश्र हुआ और होगा यह अकल्पनीय है। इस प्रकार पीड़ित किसी
भी व्यक्ति अथवा समुदाय के रहते स्वस्थ सशक्त राष्ट्र के निर्माण की कल्पना नहीं
की जा सकती। राष्ट्र का निर्माण ओर उसकी दष्ठता का आधार स्तम्भ होता है समता मूलक
समाज । जो धर्म या समाज, समाज में विभेदिजनक स्तरीकरण
स्थापित करता है वह शक्ति शाली राष्ट्र का निर्माण कर ही नहीं सकता
डॉ० अम्बेडकर की दृष्टि से व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में
धर्म का अत्यधिक महत्व है लेकिन वह धर्म अंधविश्वासों, कुरीतियों
और आडम्बरो से मुक्त होना चाहिए। धर्म के महत्व को स्वीकार करते हुए डॉ० साहब ने
हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराइयों, वर्णवाद, जातिवाद, छुआछूत, ऊँच-नीच के
प्रति विद्रोह किया। उनका मानना था कि जो भी तत्व समाज में भेदभाव की प्रवृत्ति
उत्पन्न करता है वह राष्ट्र और राष्ट्रवाद के विपरीत तत्व होता है। डॉ अम्बेडकर के
स्वयं के जीवन और संघर्ष से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
डॉ अम्बेडकर सही अर्थों में बहु आयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे, उनका लालन पालन अनुशासन के वातावरण में हुआ था। अतएव यह उनके व्यक्तित्व
में पूरी तरह समाहित था। उनका जन्मना हुआ वह भी एक अस्पष्श्य परिवार में इस कारण
जीवन में उन्हें प्रायः अपमान जनक स्थितियों का सामना करना पड़ता था। परन्तु इन
अपमानों और तिरस्कारो से वह जरा भी विचलित नहीं होते थे। उनमें एक अपराजेयताः की
भावना थी। अतः सारी विपरीत परिस्थितियों के रहते हुये वह अपने निर्धारित मार्ग पर
आगे बढ़ते रहे और उच्च शिक्षा प्राप्त करते हुयें इग्लैण्ड, अमेरिका
तथा जर्मनी के विख्यात विश्वविद्यालयों से अनेक उपाधियां प्राप्त की। पाश्चात्य
देशों में अनेक वर्षों तक रहने के बाद भी डॉ अम्बेडकर पूर्णतः भारतीय बने रहे। डॉ०
अम्बेडकर एक अटल देश भक्त तथा राष्ट्रवादी थे। उनके भाषण तथा लेख उनकी देश भक्ति
की भावना के प्रमाण हैं, वस्तुतः उन्हें इस बात का स्वाभिमान
था कि अपनी पीढ़ी के अन्य किसी भी व्यक्ति की तुलना में वह एक प्रखर राष्ट्र भक्त
थे।
डॉ० भीमराव अम्बेडकर के व्यख्यान तथा लेखन इस बात का प्रमाण हैं कि वह पूर्णतः तर्कवादी थे। जो बात तर्क सम्मत नही हो उसे वह कदापि नही मनाने थे। तर्क के दष्टि से उनके वक्तव्य अकाट्य थे, भले ही वह कितने कटु और अप्रिय क्यों न लग रहे हों। "डॉ० अम्बेडकर का राजनीतिक जीवन एक ऐसे व्यक्ति की त्रासदी है जो यह सोचता है राजनीति तर्क शास्त्र की कायल है। वह सोचते है कि वही चीज सही है जो तर्क की कसौटी पर खरी उतरे। सतारा शाला में अध्ययन के दौरान अस्पृश्यता के कारण बालक भीमराव को अनेक कठनाइयों का सामना करना पड़ा। उस समय बाल-विवाह का अधिक प्रचलन था इसलिये लगभग 15 वर्ष की उम्र में भीमराव का विवाह वालंगकर की पुत्री रमाबाई से कर दिया गया। विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करते हुये भीमराव ने 1907 मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उस जमाने में किसी तथाकथित अछूत का मैट्रिक पास करना बहुत बड़ी बात थी।
राम जी ने अपने पुत्र को उच्च शिक्षा दिलाने के लिये बम्बई एलफिन्सटन
कालेज में दाखिला दिलाया। डॉ भीमराव अम्बेडकर बचपन से ही लगन के पक्के थे, इनके अध्ययन एवं परिश्रम से इनके शिक्षक बहुत प्रभावित थे। डॉ० अम्बेडकर
की विद्वत्ता से प्रभावित होकर बड़ौदा रियासत के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ ने 25
रु० प्रतिमाह की छात्रवर्षत स्वीकार कर दी। भीमराव ने 1912 में बी०ए० की परीक्षा पास की। इनके बाद बड़ौदा राज्य की फौज में
लेफ्टीनेंट के पद पर नियुक्त हुये। परन्तु अम्बेडकर इस पद पर थोड़े समय ही रह सके।
डॉ० भीमराव को लगा कि अब कुछ अच्छा समय आने वाला है तो उनके सिर पर विपत्ति आ
पड़ी। 2 फरवरी 1913 को पिता रामजी
सकपाल का निधन हो गया। अनाचक पिता के निधन से भीमराव व्याकुल हो गये। चूंकि रामजी
सकपाल ने एक आदर्श पिता के रुप में विपरीत आर्थिक परिस्थितियों से जूझते हुये भी
अपने पुत्र भीमराव को उच्च शिक्षा देने का संकल्प किया था परन्तु उनके कहे एवं
बनाये हुये नियम को अपनाकर ही भीमराव आगे बढते रहे ।
डॉ अम्बेडकर ने 1915 में एम० ए० और 1917 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से "द एवोलूशन ऑफ प्राविन्शियल फाइनेन्स
इन बिट्रिश इण्डिया" शोध प्रबन्ध पर पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। इस बीच
उन्होंने अमेरिकी जीवन शैली का भी अध्ययन किया। अमेरिका की स्वतन्त्रता मानव
मूल्यों और उदार व्यवहार ने डॉ० भीमराव को बहुत प्रभावित किया। इसके बाद डॉ.
अम्बेडकर लंदन गये जहां बार एट ला की पढाई की पूरी की।
विदेशो में रहकर अध्ययन करने के कारण उन्हे नई दिशा प्राप्त
हुई। उन्हें भारत मे जाति व्यवस्था के नाम पर आदमी-आदमी की दूरी खलने लगी। पीड़ित
वर्ग को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने के लिये 1920 में 'मूक नायक' नामक एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ
किया। 1927 में 'बहिष्कृत भारत'
नामक मराठी पत्रिका का भी प्रकाशन शुरु किया। दोनो पत्रिकाओं में
शोषित लोगों को उचित अधिकार दिलाने की मुहिम की शुरुआत की।
डॉ भीमराव के जीवन में काफी उतार चढ़ाव आये। 1913 में जब डॉ० साहब अमरीका में थे तब इनकी पत्नी रमाबाई के पहले पुत्र का
जन्म हुआ, जिसका नाम रमेश रखा गया परन्तु वो बालक बचपन में
ही ईश्वर को प्यारा हो गया। वर्ष 1919 में दूसरे पुत्र का
जन्म हुआ जिसका नाम गंगाधर रखा गया। यह बालक भी जल्द ही काल कलवित हो गया । डॉ०
अम्बेडकर का तीसरा पुत्र यंशवत हुआ जो पूर्ण स्वस्थ्य रहकर पूर्ण जीवन जिया,
इनकी इनकी चौथी संतान पुत्री थी जिसका इंदू नाम रखा गया और रमाबाई
को अन्तिम पुत्र 1925 में जन्मा जिसका नाम राजरत्न रखा गया।
पुत्री इन्दू और पुत्र राजरत्न भी बचपन में ही मौत की नींद सो गये । सिर्फ एक
पुत्र यशवंत ही जीवित रहा। इस सब के बाबजूद उनको भारत में लाखों दलित गरीब लोगो की
चिन्ता थी। उन्होने पीड़ित वर्ग के व्यक्तियों की नियति का निर्माण करने में
युगांतकारी योगदान दिया।
डॉ अम्बेडकर ने दलित लोगो को एक नई विचार धारा और
सोचने की क्षमता प्रदान की। यह नई विचार धारा थी, "शिक्षित
बनो, संगठित रहो समाजिक न्याय एवं समता के लिये संघर्ष
करो।" वह सामाजिक सुधारो को परोपकार के रुप में नही बल्कि अधिकार के रुप में
चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि अछूत समाज में स्वाधीनता और आत्मगौरव की चेतना जागष्त
हो। वह नया मनुष्य एक नया समाज निर्माण करने के अभिलाषी थे। उसमें समाजिक समागम का
सतत् प्रवाह रहना चाहिये। डॉ. अम्बेडकर के मतानुसार जाति व्यवस्था ने समाज की,
विशेषकर समाज के पिछडे वर्ग की बहुत हानि की। जाति व्यवस्था ने भारत
को विभाजित कर दिया और हिन्दूओ को छोटे-छोटे हजारों समुदाय में विभक्त कर दिया,
जो भ्रातृत्व की भावना को विकसित नहीं होने देता है। इसलिये डॉ.
अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था की संस्था की भर्त्सना की और उसकी समाप्ति का आह्वान
किया। डॉ अम्बेडकर ने जब यह देखा कि अछूत लोगों के साथ समाज में उच्च जातियों के
लोगों द्वारा उनका दमन पराधीन करके निम्न तर व्यक्तियों जैसा व्यवहार किया जाता है
तो इस प्रथा के प्रति उन्होने विरोध प्रकट किया और दुःखी होकर 23 अक्टूबर 1935 को येवला में यह संकल्प लिया कि
"यद्यपि मेरा जन्म एक हिन्दू की भांति हुआ था जो एक मेरे हाथ मे नही था
किन्तु मै हिन्दू की तरह मरुगा नहीं।' उनका यह संकल्प 21
वर्ष बाद 14 अक्टूबर 1956 को साकार हुआ जब उन्होंने अपने लाखों अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध
धर्म को अंगीकार किया। यह एक एतिहासिक घटना थी। विश्व के इतिहास मे 14 अक्टूबर 1956 की धर्मान्तरण की यह घटना अद्वितीय थी।
इस पर जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि "डॉ अम्बेडकर उच्च कोटि के देश-भक्त और
सामाजिक क्रान्तिकारी थे।
जिस
वर्ग मे उनका जन्म हुआ था उसमे यदि मै भी पैदा हुआ होता तो मैं भी वही करता जो
उन्होने किया। दलितों के कल्याण के लिये डॉ अम्बेडकर सच्चे समर्थक बने, सभी प्रकार सामाजिक-आर्थिक भेदभावों के विरुद्ध संघर्ष किया। बम्बई
लेजिस्लेटिव कांउसिल में भाषण करते हुये 27 फरवरी 1927
को कहा था कि 'सरकार को दलितों की सहायता
अवश्यमेव करनी चाहिये। और इस तरह डॉ० साहब ने अस्पष्यता की समस्या को महत्वपूर्ण
रूप से रेखांकित किया। अस्पृश्यता उन्मूलन के लिये पहला आन्दोलन 19 मार्च 1927 को महाड से शुरू किया। पानी जैसे
प्राकतिक संसाधनो की पूर्ति, अछूतों के लिए समान अधिकारों की
मांग की जो उस समय अछूतों के लिए निषिद्ध थे। यह आन्दोलन "मीठा पानी तालाब
सत्याग्रह" के नाम से जाना जाता है।
28 मार्च 1928 को बंधुआ मजदूर प्रथा के खिलाफ अपना दूसरा आन्दोलन आरम्भ किया। महाड़ की सफलता के पश्चात् 2 मार्च 1930 को 'कालाराम मंन्दिर' नासिक में 'मन्दिर प्रवेश' नामक आन्दोलन शुरू किया। डॉ० भीमराव भारत राष्ट्र के समर्पित एक सैनिक की भांति रहे है। उनको जो भी कार्य सौंपे गये उनको उन्होने पूरे उत्तरदायित्व के साथ निभाया है। गोलमेज सम्मेलन में सहभागिता डॉ० साहब का संघर्ष काल अंग्रेजो के समय का था। भारत की सारी जनता अंग्रेजो की दासता से मुक्ति चाहती थी उनको वह हर एक नेता प्रिय लगता था जो अंग्रेजो की हुकुमत से मुक्ति दिला सकने की क्षमता रखता था। उन्होंने देश की आजादी के बाद की सरकार के बारे में कहा था, कि हम ऐसी सरकार चाहते है, जो गरीब जनता की भलाई चाहे, और करे। हम ऐसी सरकार चाहते है जो देश में आर्थिक सामाजिक समता लावें। हम ऐसी सरकार चाहते है जो देश में बदलाव लावे। भारत का संविधान ऐसी प्रेरणा से बनना चाहिये कि जो देश से जाति वर्ण और ऊंच-नीच का भेद-भाव मिटा दे। यह सब हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब हमारे हाथ में राजनीतिक सत्ता हो।"
डॉ अम्बेडकर के ओजपूर्ण विद्वता से परिपूर्ण भाषण से विदित
होता है कि डॉ० साहब कितने राष्ट्रप्रेमी, लोकतन्त्रवादी व
स्वतंत्रता के समर्थक थे। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 7 सितम्बर 1931
से प्रारम्भ हुई जिसमें डॉ० साहब ने दलितों के हितो की पुरजोर वकालत
की जिसके फलस्वरुप अंग्रेजी सरकार ने पुलिस और सैन्य बलो की भर्ती में दलितों को
वरीयता देना प्रारम्भ कर दिया। तृतीय गोलमेज सम्मेलन 17 नवम्बर
1932 को लंदन में प्रारम्भ हुयी । इस सम्मेलन में डा० साहब
ने दलितों के साथ महिलाओं की दीन-हीन दशा के बारें में भी आवाज उठाई तृतीय गोलमेज
सभा का समापन 24 दिसम्बर 1932 को हुआ।
अब तक डॉ. भीमराव अम्बेडकर की गिनती राष्ट्रवादी नेताओं में होने लगी थी। गोलमेज
सभा के बाद डॉ साहब ने दलितों के लिये स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकार की मांग की। और
स्वतन्त्र भारत में इनके लिए पृथक निर्वाचन की मांग रखी इस बात पर मुसलमान,
सिक्ख, ईसाई तथा अन्य राजनीतिक दल भी सहमत थे।
14 अगस्त 1932 को ब्रिट्रिश सरकार ने
भारत वर्ष के लिये कम्युनल एवार्ड की घोषणा कर दी। भारत में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई तथा इनके लिये के लिये राजनीतिक
अधिकारों से सम्बधित निर्णय को ही 'कम्युनल एवार्ड' कहा गया। इसमें प्रान्तों के विधान सभाओं में पृथक स्थान प्रदान किये।
अनुसूचित जातियों को दोहरे निर्वाचन का अधिकार दिया गया। लेकिन इस को देश मे पूरा
समर्थन नही मिलने के लिये दो प्रकार से प्रयत्न हो रहे थे, राजनीतिक
और क्रान्तिकारी के रूप में, देश का हर बड़ा नेता देश की
आजादी के लिये प्रत्यनशील था।
डॉ. अम्बेडकर उन नेताओं में से थे जो विचार विमर्श कर
देश की आजादी लेना चाहते थे। अंग्रेज सरकार ने स्वतन्त्र भारत के भावी नीति-
निर्धारण के लिये गोलमेज सम्मेलन लंदन मे बुलाया। इसमें डॉ० अम्बेडकर ने भी भाग
लिया प्रथम गोलमेज सम्मेलन12 नम्वबर 1930 से 21 नवम्बर 1930 के बीच
सम्पन्न हुआ। डॉ. अम्बेडकर ने दलित जातियों का पक्ष रखते हुये कहा कि
"इंग्लैण्ड और फ्रांस की आबादी के बराबर भारत में अछूतों की आबादी है। इन
अछूतों को समाजिक, आर्थिक, नागरिक,
शैक्षणिक किसी भी प्रकार की आजादी प्राप्त नहीं है। इतनी विशाल
जनसंख्या वाले अछूत सब के सब गुलाम है, अंग्रेजो के भारत मे
आने के पहले भी अछूत गुलाम थे, देश में 150 वर्षों के अंग्रेजो के शासन के बाद भी अछूत गुलाम है। अंग्रेजो के शासन से
अछूतो को क्या लाभ? अछूत भारत में लोगों के लिए. लोगों के
द्वारा, लोगों का शासन चाहते है। आगे आपने कहा अंग्रेजी
राज्य के पूर्व अछूत हर तरह से बर्बाद बेपनाह थे। क्या अंग्रेज सरकार ने अछूतों की
बर्बादी दूर करने के लिये कुछ किया ? अंग्रेजी राज्य के
पूर्व अछूत आम तालाब कुओं से पानी नही पी सकते थे। क्या अंग्रेजी सरकार ने आछूतों
को यह अधिकार दिलाया? अंग्रेजी राज्य के पूर्व अछूत मन्दिर
मे प्रवेश नही कर सकते थे क्या अंग्रेजी राज्य ने अछूतों को यह अधिकार दिलाया ?
ब्रिटिश राज्य के पूर्व अछूत सेना, पुलिस में
भर्ती नही हो सकते थे क्या ब्रिटिश राज्य ने हमें यह अधिकार दिलाया? ऐसे अनेक प्रश्न है, जिसमें से किसी एक का भी उत्तर
हां में नही दिया जा सकता। ब्रिटिश राज्य के पूर्व अछूत जिस हालत मे थे वैसे ही आज
भी हैं फिर ऐसी सरकार से हमें क्या फायदा है? इसी प्रश्न पर
महात्मा गांधी ने अपना आमरण अनशन शुरू किया था और दलित लोगों को पृथक निर्वाचक
क्षेत्र देने का विरोध इस आधार पर किया था कि दलित स्त्री-पुरूष हिन्दू समाज के ही
अंग हैं, अतंतः इस समस्या का समाधान 24 सितम्बर 1932 को दो महान नेताओं, डॉ अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच यर्वदा जेल पूना में सम्पन्न 'पूना समझौता के रूप में हुआ। इस योजना के अंतर्गत 'कम्युनल
अवार्ड' के बदले दलित वर्गों को राजनीतिक संरक्षण प्रदान
किया गया।
संविधान निर्माण में महती भूमिका डॉ अम्बेडकर ने
दलितों की प्रजातांत्रिक इच्छाओं को मुखरित करने के लिये 1942 में अनुसूचित जाति संघ का गठन किया। इसी साल 20 जुलाई
को डॉ० अम्बेडकर साहब वाइसराय की कांउसिल में श्रम मंत्री के रूप में नियुक्ति
हुये। इसी हैसियत से डॉ अम्बेडकर ने श्रमिकों की सुरक्षा और महिलाओं के लिये तीन
महीने का प्रसूत अवकाश संबंधी और अनेक सुधार मूल्य विधेयक शुरू किये। जब 15
अगस्त 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ तो आप पहले
कानून मंत्री बने, इसी वर्ष 19 अगस्त
को वह संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष सर्वानुमति से निर्वाचित हुये और 26
नवम्बर 1948 को संविधान का प्रारूप प्रस्तुत
किया। आधुनिक भारत के संविधान निर्माण में महान योगदान देने के कारण भारतीय
संविधान के प्रमुख निर्माता के रूप में उनकी लोक प्रसिद्धी हुयी। पूर्व प्रधान
मंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू आपको 'ज्वैल ऑफ द कैबिनेट'
कहा करते थे।"
डॉ० अम्बेडकर आधुनिक भारत के प्रमुख निर्माताओं में
से एक संसदीय प्रजातन्त्र के साथ-साथ वह एक ऐसा भारतीय समाज चाहते थे जिसमे
व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो। प्रसिद्ध जीवन-चरित्र लेखक धनंजय कीर जी ने लिखा
है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही विषय-सूची के रूप में अनुक्रम दिया गया है। ग्रन्थ
को कुल 27 शीर्षक अध्यायों में बाँटा गया है तथा अन्त में
सूची वर्णित की गयी है। ग्रन्थ को 500 से ऊपर पृष्ठों में
लिखा गया है। अनुक्रम के बाद प्राक्कथन जिसे नामवर सिंह जी ने लिखा है इसके बाद
डॉ. आम्बेडकर के जीवन की चित्र-झांकियाँ प्रस्तुत की गयी है तथा ग्रन्थ की
प्रस्तावना धनंजय कीर जी ने लिखी है।
ग्रन्थ के प्राक्कथन में डॉ.
आम्बेडकर के बारे में लिखा गया है कि, 'कूड़ेखाने में पैदा
होना, अस्पृश्य के रूप में जिन्दगी की शुरुवात करना, बचपन में कुष्ठ रोगी की भाँति बहिष्कृत किया जाना और पूरी युवावस्था में
समाज से झिड़काया जाना, केशकर्तनालयों, उपहार ग्रहों, वसतिगृहों, देवालयों,
सरकारी कार्यालयों में हर समय अपमानित होकर गरदनियाँ पाना यह उनके
जीवन का कटु अनुभव है, रिश्तेदारों के भोज के डिब्बे ले
जाना. विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों में पर्याप्त दाना-पानी के बिना तड़पते हुये
अध्ययन करना, कभी हाथ में शास्त्र लेकर तो कभी शस्त्र लेकर
लड़ते-लड़ते जिन्दगी की सीढ़ियाँ चढ़ना, साथ में परिवार का
धन नहीं, राजनीति में राजनीतिक उत्तराधिकार का सहारा नहीं,
फिर भी कट्टर राजनीतिक विरोध और विपत्तियों की परवाह न करते हुये
देश के प्रथम श्रेणी के लोगों में कीर्ति पाना, यह बात सचमुच
ही असाधारण और गौरवास्पद है।
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