मजदूर की कथा व्यथा



किसे सुनाए ? सुने कौन?

(विश्व मज़दूर दिवस पर)

जन की दारुण कथा व्यथा,
किसे सुनाए ? सुने कौन?
जिम्मेदार जो जन है इसके,
देखो साधे बैठे मौन?

     (01)

न मस्जिद न कोई शिवाला।
भूखे को बस मिले निवाला।।
पेट भूखा  व्याकुल मन है।
जीर्ण शीर्ण सा सूखा तन है।।
प्रश्न खड़े अनगिनत मौन।
तृषित जन की सुनता कौन।।
यहाँ किसे सुनाए ? सुने कौन?...

      (02)

छल कपट से गुंजित मंत्र है।
अधमरा सा यह लोकतंत्र है।।
नित झूठ बोलना बना धर्म है।
अब बची न कोई लाज शर्म है।।
जहाँ सत्ताधारी बैठे मौन।
बात न्याय की बोले कौन।।
यहां किसे सुनाए ? सुने कौन?...

     (03)

थरथर तन भी कांप रहा है।
फटी चादर से ढांक रहा है।।
पगपग लगे हैं मौत के डेरे।
जीर्णशीर्ण सांसों के घेरे।।
बरसों से जागे इनके नैन।
ना सपनों में भी आए चैन।।
यहां किसे सुनाए ? सुने कौन?...


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1 टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
वास्तविकता दिखाती है कविता