समता ही मुक्ति


              महाराज बिबसार को निंद्रा नहीं आ रही थी। एक सन्यासी ने कह दिया था तुम को नरक में जाना पडेगा।' दूसरे दिन वह सन्यासी के पास पहुचा और कहने लगा 'महात्मन् । मेरा सारा राज्य ले लीजिए, सारा राज कोष आपके चरणो में-' इस मूल्य पर मुझे नरक से छुटकारा दिला दीजिए।
सन्यासी - यह राज्य तुम्हारा है, यह धन तुम्हारा यह गर्व ही तो नरक है। जब तक तुम इनके भरोसे अपने को सब कुछ पाने और खरीदने में समर्थ समझते हो, तब तक तो केवल नरक का द्वार तुम्हे खुला मिलेगा।
हाँ, यदि किसी से तुम एक दिन की पूजा का पुण्य खरीद सकते हो तो नरक से मुक्त हो।'
राजा एक मंदिर के द्वार के बाहर खड़ा हो गया एक बुढिया
निकली।
             राजा - 'बुढिया मां। तुम आज की पूजा को बेच दो मुझसे जो चाहो, मांगो।'
बुढ़िया जहा गर्व है, वहां पूजा का नाम न ले। पूजा खरीदने की चीज नहीं, यह तो समता है जहां अहंकार वहां पूजा कहां। बेटा, पूजा की जाती है, खरीदी नहीं जाती।'
राजा का गर्व जाता रहा, उसमें समता का भाव जागा। नरक? 'अहकार नरक है।
समता? यही तो मुक्ति है। समता का अर्थ है मनुष्यता। सुनो स्वर्ग क्या है? सदाचार है। मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है।

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2 टिप्पणियाँ

Sudha Devrani ने कहा…
समता ही मनुष्यता है और मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार...
बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक कहानी।
Sudha Devrani ने कहा…
बहुत सुन्दर एवं सार्थक कहानी।