कोई परिणाम एक दिन का नतीजा नहीं होता। अंधे के हाथ बटेर कभी ही लगती है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है। आस्थावान बनिए कर्तव्य के प्रति सजग होइए। लम्बी तानकर मत सोइए। बहुत दूर जाना है। खून को पसीने में ढालना है। परिश्रमी रुधिर ढल-ढल कर जब श्वेद कणों में बदलेगा, वह सच्चे मोतियों में परिवर्तित होकर आपको देगा जीवन की बहुमूल्य थाती। अतः अपने अन्दर छिपे सत्य के बीज को पहचानों और अगर, मगर, किंतु, परन्तु से बाहर आओ।
उत्साह से कठिनाइयों पर विजय संभव
युवक का उत्साह कठिनाइयों को धूल में मिला देता है। वही उत्साह यदि बुढ़ापे तक बना रहे तो आश्चर्यजनक काम करके दिखाता है। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ अस्सी वर्ष के हो जाने पर भी वैसे ही उत्साहपूर्ण थे, जैसे कि वे जीवन के प्रारम्भिक दिनों में देखे गये थे। मृत्यु के कुछ घण्टे पूर्व तक वे बराबर कविताएँ लिखते रहे थे और उनमें वही स्फूर्ति और वही उत्साह दिखाई देता था जैसा कि उनकी युवाकाल की रचनाओं में था। यही कारण है कि उनकी अन्तिम रचना में, जिसमें उन्होंने मृत्यु रूपी मल्लाह से कहा- “सामने अगाध समुद्र है। कर्णधार, नाव बढ़ाओ," उत्साह की एक उद्दाम लहर दिखाई देती है जो मृत्यु की भीषणता का उपहास-सा करती जान पड़ती है। महात्मा गान्धी के वे शब्द "अभी तो मैं नवयुवक हूँ। मेरी अवस्था ही कितनी है --केवल 65 वर्ष की", उत्साह का सजीव चित्र उपस्थित करते हैं। हाथ में लिए कार्य को पूरा करने के लिए वे जिस उत्साह से अग्रसर होते थे, वह हमें सदैव नया पाठ पढ़ा सकता है। वे कभी पराजय स्वीकार नहीं करते उत्साह उनका सहायक है। जो उत्साही हैं उनके मन में पराजय की भावना नहीं आ सकती पराजय तो उत्साहहीनता का लक्षण है और हतोत्साह का परिणाम है।
सफलता में उम्र बाधक नहीं
हिन्दी के महाकवि नाथूरामशंकर शर्मा 'शंकर' ने अपना प्रख्यात गीतिप्रन्थ बावन वर्ष की अवस्था में लिखा था। महाकवि सूरदास ने सूरसागर का निर्माण सड़सठ वर्ष की अवस्था से प्रारम्भ किया था। तुलसी-कृत रामायण की रचना भी गुसाई जी ने वृद्धावस्था में प्रारम्भ की थी। यही क्यों, डाक्टर जानसन की सर्वोत्तम रचना 'कवियों का जीवनचरित' अठहत्तर वर्ष की अवस्था में लिखी गई थी। न्यूटन ने अपनी पुस्तक 'प्रिंसिपियों' के नए संक्षिप्त वर्णन तिरासी वर्ष की उम्र में लिखे थे। प्लेटो इक्यासी वर्ष की उम्र तक बराबर लिखता रहा था। बंगाल के ठाकुर परिवार के एक सम्भ्रान्त सदस्य ने अंग्रेजी का अध्ययन साठ वर्ष की अवस्था हो जाने पर प्रारम्भ किया था। उनके पढ़ने की विधि भी निराली थी, जो स्पष्ट सूचित करती थी कि उस कार्य के लिये उनके मन में कितना उत्साह था। कहते हैं कि उन्होंने एक इशलिश-बॅगला डिक्शनरी खरीद ली और फिर उसे लेकर रटने बैठ गए। कुछ ही दिनों में उन्होंने उस डिक्शनरी के समस्त शब्दों को अर्थो के सहित कंठस्थ कर लिया। फिर उन्होंने 'अरेवियन माइट्स इण्टरटेनमेण्ट' नामक पुस्तक उठाई और उसे सात बार पड़ा और इस प्रकार दो-तीन वर्ष में ही वे अंग्रेजी भाषा में दक्ष हो गये। वे कहा करते थे कि 'जब छियासी वर्ष की उम्र में टामस्काट दिन का अध्ययन कर सकता है तब मैं तो उससे 26 साल छोटा हूँ।' महाकवि लांगफ़ लो, टेनिसन, व्होटीयर आदि की उत्तमोत्तम रचनाएँ सत्तर वर्ष की उम्र के उपरान्त ही लिखी गई थीं।
फ्रांसिस पार्कमैन हारवर्ड का एक साधारण छात्र था। उसके मन में यह इच्छा हुई कि मैं उत्तरी अमेरिका के अँग्रेजों और फ्रांसीसियों का इतिहास लिखूंगा। इस इच्छा की पूर्ति में वह तन-मन-धन से तत्पर हो गया। काम सचमुच कंठिन परिश्रम और श्रम साध्य था पर एक बार जो संकल्प कर लिया, उसे छोड़ना पार्कमैन नहीं जानता था इतिहास की सामग्री का संकलन करते-करते उसकी आँखें खराब हो गई, स्वास्थ्य चौपट हो गया, फिर भी उसने अपना संकल्प न छोड़ा फल यह हुआ कि उसने जो इतिहास लिख डाला वह आज भी विद्वानों के लिए आदर और गौरव की वस्तु है।
'मेघनाद वध महाकाव्य के रचयिता माइकेल मधसूदनदत्त जिन दिनों हिन्दू कालेज में पढ़ते थे, उन दिनों उनके सहपाठियों में दो ऐसे और थे जिनकी दत्त बाबू से बड़ी घनिष्ठता थी। वे थे मौलवी अब्दुल लतीफ़ और श्री भूदेव मुखोपाध्याय एक दिन कालेज-लॉन पर संध्या समय टहलते-टहलते तीनों मित्र एक स्थान पर बैठ गए और आपस में कहने लगे-"आज इस बात का निर्णय करवा ले कि हममें से कौन क्या होना चाहता है" सामान्य दृष्टि से देखने पर इस वार्तालाप में कुछ विशेषता नहीं दिखाई देगी, क्योंकि हममें से अधिकांश अपनी छात्रावस्था में अपने सहपाठियों से इसी प्रकार की चर्चा प्रायः किया करते हैं, जो मनोविनोद या गपशप से अधिक महत्त्व नहीं रखती पर उन तीनों मित्रों की बातचीत का जो कार्यरूप जनता के सामने आया उससे ज्ञात होता है कि वह सामान्य युवकों की चर्चा की तरह 'खयाली पुलाव भर नहीं थी उनमें इच्छा थो, उसकी पूर्ति के लिए उत्साह था और सच्ची लगन थी। उनमें से भूदेव बाबू मातृ-भूमि की सेवा करना चाहते थे। वे अपने जीवन भर सचमुच इसी कार्य में लगे रहे। मौलवी साहब राजसम्मान के अभिलाषी थे। वे भूपाल राज्य के दीवान बने और उन्हें 'नवाब बहादुर' का सम्मानपूर्ण खिताब प्राप्त हुआ दत्त बाबू कवि बनना चाहते थे और उनका 'मेघनाद वध' बंगला साहित्य की अमर रचना है, जिसकी प्रशंसा देशी विद्वानों ने हो नहीं, विदेशी विद्वानों ने भी मुक्त-कण्ठ से की है, और जिसके आज तक न जाने कितनी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं।
तुम्हारे निर्णय ही सफलता का मार्ग तय करते हैं
प्रसिद्ध विचारक बक्सटन ने अपने पुत्र को एक पत्र द्वारा जो उपदेश दिया था, वह आज भी हमारा पथ-प्रदर्शन कर सकता है। उसने लिखा था- "अब तुम जीवन के चौराहे पर पहुँच गए हो, जहाँ तुम्हें यह निर्णय कर लेना है कि तुम किस और घूमोगे ! भावी जीवन में यही निर्णय तुम्हारा सहायक होगा पर निर्णय सावधानी से करना। यह न हो कि तुम एक दिशा की ओर मुड़ो और जब कुछ दूर निकल जाओ, तब तुम्हारे दिल में यह आए कि इस ओर मुड़कर तुमने ठीक नहीं किया और फिर तुम दूसरी ओर जाने का प्रयत्न करो। ऐसा करके तुम सचमुच एक बड़ी गलती करोगे, क्यों कि इससे न केवल समय और परिश्रम का अपव्यय होगा, बल्कि तुम जीवन का अमूल्य अवसर खो बैठोगे, जो सम्भव है फिर तुम्हें कभी न मिले। पर उससे बड़ी भूल यह होगी कि तुम चौराहे पर ही सोचते रह जाओ और यह निर्णय ही न कर पाओ कि तुम्हें किधर मुड़ना चाहिये। यदि तुमने ऐसा किया तो सचमुच तुम आलसियों और अकर्मयों की श्रेणी में आ जाओगे और फिर कुछ न कर सकोगे। इसलिए शीघ्र निर्णय करलो, अपने गन्तव्य के सम्बन्ध में निश्चित धारणा बनालो और फिर उत्साह के साथ उस ओर अग्रसर हो जाओ। इसी प्रकार तुम अपने मार्ग की कठिनाइयों को साहस के साथ पार करते हुए निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर सकोगे और तुम्हें वह वस्तु प्राप्त होगी, जिसे सफलता कहते हैं। आओ, वक्सटन के पुत्र की भाँति अपने जीवन के इस चौराहे पर हम भी अपनी गन्तव्य दिशा का ठीक ठीक निर्णय करलें और फिर अदम्य इच्छाशक्ति के साथ पूर्ण उत्साह लिए हुए अग्रसर हों और सफलता प्राप्त करें।
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