उसने कहा तुम जिसके नाम का सिंदूर अपने माथे पर लगा रही हो उसके नाम का सिंदूर लगाने की तैयारी मृगनयनी कर रही है। यह सुनते ही सुनयना के पैरो तले की जमीन खिसक गई। रिश्तों की सुख दाई बेला में आ पहुँचा त्रास। उसके नेत्र अंगारों के समान जल उठे। वह अज्ञात भय से भयभीत हो उठी। वह इसी भय से घबरा गई थी की सचमुच कही मृगनयनी उसके पति को उससे छीन न ले। रुप राशि की मलिका थी वह। उसके नयन बाण से आज तक कोई न बच सका। उस पर आरोप लगा था कि वह गाँव के भोले-भाले युवकों को अपने रुप यौवन के मोह-पास में फंसाती है। कुल्टा नाम दिया था उसे। वह गाँव के बाहर झाड़ियों के पीछे झोपड़ी बनाकर रहती थी।
सुनयना ने आज जब अपने पति को उसके घर की तरफ जाते देखा तो वह आक्रोशित हो गई तथा हाथ में एक तेज धार-धार हथियार लिए तीव्र गति से जंगल की ओर उसके घर की तरफ अपने पति के पीछे-पीछे चलने लगी। जब उसका पति झोपड़ी के अंदर चला गया, तो वह इसी सोच में थी कि कब मौका मिले और दोनों का काम तमाम करुँ। जब उसने झोपड़ी के अंदर झाँका और उसने जो दृश्य देखा, हृदय विदीर्ण हो उठा उसका उस दृश्य को देखकर। उसका हृदय आत्मग्लानि से भर गया। मृगनयनी के हाथों में आरती थी, उसने तिलक लगाया और उसे राखी बाँधी। और रोते-रोते उसने कहा की भैया तुम न होते तो आज लोग मेरी इज्जत को तार-तार कर देते। मेरा रुप यौवन और मेरी गरीबी ही मेरा दुश्मन बन गई। आपने जब तक मेरे पति नहीं आते तब तक झूठ की सिंदूर लगाकर मेरी लाज बचा ली। मैं इसके लिए आपकी धर्म पत्नी की सदैव ऋणी रहूँगी। तभी सुनयना वहाँ प्रकट हो गई और मृगनयनी को अपने गले से लगा लिया। और रोते-रोते कहने लगी मुझे माफ कर दो बहन मैंने अपको गलत समझा। उसके मन में उस समय जो मृगनयनी के प्रति अपार घृणा थी वह अब जा चूकि थी। उसका मस्तिष्क जो शंका से भरा हुआ था। अब खाली हो गया। और मृगनयनी कुल्टा के आरोप से बरी हो गई।
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