श्रीकृष्ण जन्माष्टमी- कृष्ण महामानव एक जीवन परिचय

वासुदेव श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के ही नहीं, अपितु विश्व संस्कृति के एक महापुरुष है। धर्म और राजनीति — दोनो ही क्षेत्रों मे उनका विशिष्ट अवदान रहा है।
भारत भूमि में जन्मा कौन ऐसा व्यक्ति होगा जिसने योगेश्वर कृष्ण का नाम न सुना हो ? "कृष्णं वन्दे जगद्गुरु" कह कर देश की सर्वश्रेष्ठ विभूतियों ने उनके प्रति अपना आदर प्रकट किया है। कृष्ण की विविध कथाओं को अपनी काव्य रचनावों का आधार बनाकर न जाने कितने कवियों ने अपनी कवित्य शक्ति को सफल बनाया है ! जाने कितने कलाकारों ने कृष्ण की विविध लीलाओं के सुन्दर चित्र बनाकर अपनी तूलिका को धन्य किया है !

   श्रीरामचन्द्र के समान श्रीकृष्ण भी करोड़ों भारतवासियों के श्रद्धा और भक्ति के पात्र हैं। इसलिए उनके जीवन की वास्तविक घटनाओं का पता लगाना अत्यन्त कठिन है। उनके जीवन के सम्बन्ध में जो कहानियाँ प्रचलित हैं, उनमें बचपन से लगाकर अन्त तक आश्चर्यजनक घटनाएँ भरी पड़ी हैं। कृष्ण जन्म के बाद वसुदेव का कारागार से निकलकर तथा बाद से उफनती यमुना की जलधारा को तैरकर पार करना, कृष्ण का कालियादह में नाग से लड़ना तथा शकटासुर आदि भयानक शक्तिशाली मनुष्यों का संहार करता आदि कोई साधारण घटनाएँ नहीं हैं। वास्तव में कृष्ण की सम्पूर्ण जीवनलीला उनका दुष्टों से लड़ना और सज्जनों की रक्षा करना, उनकी राजनीतिक क्षमता और सबसे अधिक उनका गीता के द्वारा दिया हुआ कर्मयोग का संदेश भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है और इस कारण प्रत्येक व्यक्ति के लिए श्रीकृष्ण का जीवन चरित्र एक महान् प्रेरणादायक है।

                        जन्मे कहाँ कृष्ण

     मथुरा के एक कारागार में उनके पिता वसुदेव और माता देवकी कृष्ण के मामा कंस के बंदीगृह में क़ैद थे। किसी ने भविष्यवाणी की थी कि "देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवीं सन्तान के हाथों कंस की मृत्यु होगी।" इसी आशंका से अत्याचारी कंस ने अपनी बहिन देवकी और उसके पति बसुदेव को कारागार में डाल दिया था। वह एक-एक कर उसके सात पुत्रों का जन्मते ही वध कर चुका था जब आठवीं सन्तान के जन्म का समय निकट आया तब तो उसकी दुश्चिन्ता की कोई सीमा तक न रही। उधर वसुदेव-देवकी के हृदय पर क्या बीत रही थी, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। ज्यों-ज्यों प्रसव का समय निकट आ रहा था, उनके प्राण सूखे जा रहे थे। वे अपनी इस अन्तिम सन्तान की रक्षा के लिए सब कुछ करने को तैयार थे। किन्तु क्या करें ? सोचते सोचते अन्ततः उन्हें एक मार्ग सूझ पड़ा।

                        श्रीकृष्ण जन्म

        भाद्रपद कृष्ण अष्टमी बुधवार की अर्थ- रात्रि का समय था। देवकी ने आठवीं सन्तान के रूप में कृष्ण को जन्म दिया। बसुदेव चुपचाप उठे और शिशु को लिए किसी तरह कारागार से बाहर हो गये और जमुना के किनारे आ पहुंचे। पर जमुना को पार करना कोई सहज बात न थी। अंधेरी रात और निरन्तर वृष्टि के परिणाम स्वरूप उफन उफन कर बहती हुई यमुना की वह जल-धारा ! कहीं थाह का नाम नहीं किन्तु ठिठकने का अवकाश कहाँ ? वसुदेव जल में धँस पड़े तैरते-तैरते किसी तरह उस पार लगे और शीघ्रता से गोकुल की ओर चल दिये। गोकुल में सन्नाटा छाया था। वसुदेव अपने मित्र के द्वार पर पहुंचे। नन्द ने बड़े स्नेह और उत्साह के साथ अपने बालबन्धु का स्वागत किया। वसुदेव ने अपना प्रयोजन कहा, नन्द ने सहृदय कृष्ण के लालन-पालन का भार अपने ऊपर ले लिया। किन्तु तभी उन्होंने सोचा कि यदि वसुदेव खाली हाथ लौटेंगे और सवेरा होने पर कंस को ज्ञात होगा कि देवकी अपनी आठवीं सन्तान को जन्म दे चुकी, किन्तु वह सन्तान वहाँ नहीं है, तो वह वसुदेव देवकी को भी जीवित नहीं छोड़ेगा। वे भीतर गए और शिशु कृष्ण को अपनी पत्नी की शय्या पर लिटा कर, उसी दिन उसने भी जिस कन्या को जन्म दिया था, उसे अपनी बाहों में लिए बाहर आ गये। उसे वसुदेव को देकर उन्होंने कहा कि इसे ही तुम अपनी आठवीं सन्तान के नाम से घोषित कर देना। वसुदेव झिझके, किन्तु यह सोचकर कि शायद पुत्र के स्थान पर पुत्री को देखकर कंस का विचार बदल जाये, वे उसे लेकर उल्टे पांव मथुरा लौट आये। कंस को देवकी के गर्भ से आठवीं सन्तान के जन्म का समाचार मिला। वह तुरन्त भागा हुआ आया। देवकी ने रो-रो कर उसे जो उसका सगा भाई था बहुत-बहुत रोका, मनाया समझाया कि यह तो कन्या मात्र है। इससे भला तुम्हारा क्या अहित हो सकता है ? वसुदेव ने भी उससे बहुत बहुत विनती की, किन्तु उसने एक न मानी। उस फूल-सी सुकुमार कन्या को उसने उठाया और पत्थर पर दे मारा। वसुदेव और देवकी आहत हृदय से देखते रह गये। कंश ने एक पैशाचिक अट्टहास किया। बोला- "देखें, अब मेरा कौन क्या बिगाड़ सकता है ! अपने परम शत्रु को मैंने पहले ही समाप्त कर दिया है।" किन्तु न जाने कैसे, उसे मन ही मन ऐसा लगा कि दाल में कुछ काला है और हो न हो, उसका संहारक कहीं न कहीं जन्म ले चुका है। अपनी अस्त-व्यस्त मानसिक अवस्था में उसे यह भी प्रतीत हुआ जैसे उस नवजात कन्या की आत्मा शरीर से मुक्त होकर उसे यह कहती गयी कि "दुष्ट मुझे मारकर तुझे कोई लाभ नहीं होने का, तेरा शत्रु तो जीवित और सकुशल है।" कंस की विचित्र दशा थी। किन्तु उपाय क्या था ? जो कुछ वह कर सकता था, कर चुका था। उसका दुर्भाग्य कि एक नहीं, दो नहीं, आठ-आठ शिशुओं की हत्या करने के बाद भी उसकी मानसिक चिन्ता नहीं मिट सकी।

           श्रीकृष्ण बाल जीवन

     उधर कृष्ण नन्द के यहाँ बड़े लाड़ प्यार से पलने लगे। नन्द-यशोदा के कोई और सन्तान भी नहीं। अपने हृदय के दुलार का सारा कोष उस दम्पति ने कृष्ण पर ही उंडेल दिया। कृष्ण भी कोई साधारण बालक न थे। उनका रूप, उनकी चेष्टाएँ, उनकी बाल क्रीड़ाएँ, न केवल स्वजनों को वरन् समस्त ग्रामवासियों को मोह रही थीं। सारा गोकुल गाँव उन पर रीझ पड़ा था। वे सबकी आँखों के तारे थे। ज्यों-ज्यों वे बड़े होते गये, ग्रामवासियों का उनके प्रति अनुराग भी बढ़ता गया। आयु पाकर रूप के साथ-साथ उनके बल-पराक्रम तथा अद्भुत कार्य कौशल का भी विकास होने लगा। अपने पराक्रम से वे गोकूल के गोप- समाज के अग्रणी माने जाने लगे। बाल्यकाल में ही कृष्ण द्वारा किये गये साहसी कार्यों के समाचार कंस के पास भी पहुंच रहे थे। इन समाचारों ने उसे कृष्ण की ओर से बहुत सशंक बना दिया। उसने छल या बल किसी भी युक्ति से उन्हें मरवा डालने का प्रयत्न आरम्भ कर दिया। शकटासुर, तृणावर्त तथा बकासुर जैसे अपने दुर्दमनीय साथियों को उसने भेष बदलवा कर गोकुल भेजा। अपने साथी ग्वाल वालों के साथ वन में विचरते हुए बालकृष्ण पर उन्होंने घात लगा-लगाकर आक्रमण किये, किन्तु कृष्ण की चातुरी और पराक्रम के आगे उनकी एक न चली। इतना ही नहीं, एक-एक करके वे सभी कृष्ण के हाथों मारे गये । अपने सभी प्रयत्नों को इस प्रकार निष्फल होते देखकर कंस की चिन्ता और व्यग्रता का कोई ठिकाना न रहा। इसी बीच कृष्ण की निर्भीकता और वीरता की एक और कहानी उसे सुनने को मिली। यमुना तट के समीप ही जहाँ गोकुल के ग्वालबाल अपनी गौएं चराने जाया करते थे, एक भयंकर दह' था, जो कालियादह' के नाम से प्रसिद्ध था। उसमें रहते एक भयंकर विषधर सर्प से सभी आतंकित थे। एक दिन ग्वाल बालों के साथ खेलते खेलते कृष्ण के हाथ से उनकी गेंद उस दह में जा पड़ी। किसमें सामर्थ्य थी कि उस दह में कूद कर गेंद निकाल लाये ? किन्तु कृष्ण को ऐसा करते एक क्षण भी नहीं लगा।

      वे तुरन्त उस वह में कूद पड़े। सर्प के लिए यह बड़ी भारी चुनौती थी। वह फुफकारता हुआ उनकी ओर दौड़ा पर वाह रे कृष्ण ! उन्होंने उसे पकड़ कर ऐसी-ऐसी पटकियाँ दीं कि सर्पदेव चीं बोल गये उनका सारा अहंकार और क्रोध काफूर हो गया जबड़ों से रक्त की धार बह निकली। उधर कृष्ण के कालियादह में कूदते ही ग्वाल वालों में हाहाकार मच गया। कुछ ग्वाल-बाल गाँव में दौड़े गए। समाचार सुनते ही नन्द-यशोदा और उनके पीछे सैकड़ों ब्रजवासी कृष्ण से प्रेम के कारण वहाँ खिचे चले आये। कोई रो रहा था, तो कोई चिल्ला रहा था।

    सब लोग तो ऋन्दन करते रहे, किन्तु बलराम जो कृष्ण की सौतेली माँ के पुत्र थे और आयु में उनसे कुछ बड़े भी थे साहस करके आगे बढ़े और धह में झांककर देखने लगे। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि कृष्ण ने उस महासर्प के फन पर आधात पर आघात कर उसे बिलकुल ठण्डा कर दिया है। उन्होंने यह संवाद सभी ब्रजवासियों को सुना दिया। हर्ष का पारावार उमड़ पड़ा। दोनों भाइयों को आगे कर सब व्रजवासी गाते और हर्ष से नाचते हुए अपने-अपने घर लौट आये

     कंस के षड्यंत्र और श्रीकृष्ण द्वारा कंस वध

       उधर कृष्ण के बढ़ते हुए प्रभाव के सम्बन्ध में सुन-सुन कर कंस के देवता कूच कर रहे थे। कृष्ण को नीचा दिखाने अथवा उन्हें समाप्त करा डालने के अपने सभी प्रयत्नों में वह अब तक पूरी तरह असफल रहा था। अब उसने और भी निकृष्ट कोटि की कूटनीति का आश्रय लिया। उसने अक्रूर को अपना प्रतिनिधि बनाकर गोकुल भेजा और एक यज्ञ में सम्मिलित होने के बहाने कृष्ण और बलराम को मथुरा लिवा लाने के लिए कहा। अक्रूर कंस की प्रकृति भली प्रकार जानता था, किन्तु कंस के आदेश की अवज्ञा करना भी सहज न था। निरुपाय होकर वह गोकुल गया और नन्द बाबा को कंस का सन्देश कह सुनाया। कृष्ण और बलराम ने तो तनिक भी संकोच प्रकट नहीं किया। वे निर्भयतापूर्वक तुरन्त मथुरा के लिए प्रस्थान करने को उद्यत हो गए। किन्तु नन्द यशोदा तथा अन्य व्रजवासियों के हृदय आशंका से भड़क उठे। कंस की आशा भंग करने का साहस तो वे कैसे करते ? अस्तु कृष्ण-बलराम के साथ कई गोकुलवासी स्वयं भी मथुरा के लिए चल पड़े। कृष्ण के आने के पूर्व ही कंस ने अपना षड्यन्त्र पक्का कर लिया था। जिस सभा भवन में जाकर कृष्ण-बलराम को कंस से भेंट करनी थी, उसके द्वार पर उसका प्रसिद्ध हाथी कुबलियापीड़ आक्रमण के लिए तैयार खड़ा था। कंस ने उसके महावत को गुप्त रूप से कहला दिया था कि यदि उसका हाथी दोनों कुमारों को जान से मार डालेगा तो उसे खूब पारितोषिक मिलेगा और यदि न मार सका तो हाथी और महावत दोनों को मृत्यु दण्ड मिलेगा। उधर सभा भवन में चाणूर, मुष्टिक और शत-तोशल नाम के प्रचण्ड पहलवान उपस्थित थे। उन्हें भी कंस द्वारा यह गुप्त संकेत मिला हुआ था कि यदि कृष्ण-बलराम कुबलीयापीढ़ से किसी प्रकार बच जायें, तो वे उन्हें मल्ल युद्ध में पछाड़कर सदा के लिए सुला दें। कंस ने तो अपनी समझ में यह व्यवस्था कर ली थी, किन्तु होना कुछ और ही था। कंस की कपट-नीति से कृष्ण-बलराम भी अपरिचित तो थे नहीं, पर उन्हें अपने साहस, बुद्धि और पराक्रम पर भरोसा था। अतः वे निश्चिन्त होकर कंस के सभा भवन की ओर चल पड़े। द्वार पर पहुँचे ही थे कि महावत की प्रेरणा पाकर दुष्ट हाथी ने उन पर आक्रमण कर दिया। कृष्ण ने तुरन्त स्थिति को समझा और पैंतरा बदलकर हाथी की सूंड पर प्रहार किया। हाथी ने अपना पूरा बल लगाया, किन्तु कृष्ण और बलराम की मार के आगे उसकी एक न चली चिघाड़ते हुए वह पृथ्वी पर बैठ गया और कुछ देर तड़प कर मर गया।

     अब कृष्ण-बलराम सभा भवन में पहुँचे। उन्हें यह भली प्रकार विदित हो चुका था कि यश के नाम पर आमन्त्रण केवल धोखा था। कंस ने उन्हें वहाँ केवल इसलिए बुलवाया था कि किसी प्रकार वह उनकी जीवन-लीला समाप्त कर डाले। वे चौकन्ने किन्तु निर्भय भाव से कंस के सामने जा खड़े हुए। कंस ने उनसे कहा कि तुम दोनों अपने बल के लिए बहुत प्रसिद्धि पा चुके हो। आज इस सभा के सामने हमारे पहलवानों के साथ तुम्हारा मल्ल युद्ध होगा। चाणूर, मुष्टिक और शत-तोशल नामक कंस के पहलवान यहाँ उपस्थित थे ही कृष्ण चाणूर से बलराम मुष्टिक से जा भिड़े कंस आशा से, यादव भय से और अन्य दर्शक आश्चर्य से यह संघर्ष देखने लगे। चाणूर और मुष्टिक नामी पहलवान थे, किन्तु कृष्ण और बलराम के सामने वे टिक न सके। थोड़ी ही देर के संघर्ष में वे ढीले पड़ने लगे और दोनों ही कृष्ण-बलराम के प्रबल पराक्रम के आगे दम तोड़ते दिखायी दिये। चाणूर और मुष्टिक के पश्चात् कृष्ण-बलराम शत-तोशल से जा जूझे और शीघ्र ही उन्होंने उन दोनों को भी यमलोक का मार्ग दिखा दिया। अपनी समस्त आशाओं पर पानी फिरा देखकर अब तो कंस काँप उठा। उधर वसुदेव और देवकी कुछ समय पहले तक तो भय के मारे कांप रहे थे, पर अब उनकी आँखों से अंधाधुंध अश्रु बरसने लगे। कंस की धूर्तता, दुष्टता और निष्ठुरता की अति हो चुकी थी। उसे अब और अवसर देना कृष्ण को उचित नहीं लगा। भय और निराशा में डूबा कंस भी अपने होश-हवास खो रहा था। जब उससे और कुछ न बन पड़ा तो वह कृष्ण और बलराम का नाम ले-लेकर गालियाँ बकने लगा कृष्ण कुछ क्षण खड़े यह कौतुक देखते रहे। फिर कूदकर सिंहासन पर बैठे हुए कंस के लम्बे-लम्बे केशों को हाथ से पकड़कर उन्होंने ऐसा झटका दिया कि वह बल का अभिमानी राजा लोथ की तरह लुढ़ककर भूमि पर आ गिरा। केश फिर से पकड़कर घसीटते हुए कृष्ण ने उस अत्याचारी को रंगमंच में कई चक्कर दिये और अन्त में उसके रक्त और धूल से सने हुए शरीर को उठाकर मंच के मध्य फेंक दिया।

   कंस के वध का समाचार दावानल की भांति बड़ी शीघ्रता से चारों दिशाओं में फैल गया। योद्धाओं की प्रचलित पद्धति के अनुसार यही समझा गया कि कंस को मार कर अब कृष्ण स्वयं मथुरा के राजसिंहासन पर आसीन हो जायेंगे। किन्तु यदि मथुरा तीन लोक से न्यारी थी तो कृष्ण की लीला उससे कहीं न्यारी थी। कंस के पिता उग्रसेन ने आँखों में आँसू भरकर श्रीकृष्ण से प्रार्थना भी कि "हे वीर आप अपने बाहुबल से जीते हुए मथुरा के राज्य का सुखपूर्वक उपभोग करो। मैं तो केवल इतना चाहता हूँ कि मुझे अपने पुत्र की अन्तिम क्रिया करने का अवसर दे दिया जाय।" उग्रसेन की इस प्रार्थना का कृष्ण ने जो उत्तर दिया वह उनके निस्पृह जीवन का एक उज्ज्वल उदाहरण है। उन्होंने नम्रतापूर्वक उग्रसेन से कहा, "मैंने राज्य की इच्छा से कंस को नहीं मारा, मैंने तो उसे केवल लोकहित के लिए मारा है। मथुरा का राज्य आपका है, मैं उसे आपको ही सौंपता हूँ।" इस घटना के बाद कृष्ण अपने पिता वसुदेव और माता देवकी से मिले। जन्म के बाद ही जिस पुत्र से उन्हें बिछुड़ जाना पड़ा था, उससे आज इस रूप में मिलकर उनके हृदय में कैसे भाव उठे होंगे, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।

        श्रीकृष्ण की शिक्षा अध्य्यन

       कंस वध के साथ श्रीकृष्ण के जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ। उग्रसेन के पुत्र लोकपीड़क कंस को समाप्त कर कृष्ण ने मथुरा का राज्य पुनः उग्रसेन को ही सौंप दिया। इस समय तक वे तथा उनके बड़े भाई बलराम किशोरावस्था में पदार्पण कर चुके थे। यमुना तट पर प्रकृति के विश्वविद्यालय में स्वच्छन्द वायु और आकाश के साथ मिलकर ग्वाल बालों के बीच उन्होंने एक तरह से तो जीवन की काफी बड़ी तैयारी कर ली थी परन्तु बौद्धिक विकास का पर्याप्त अवसर अभी उन्हें नहीं मिला था। इस कमी की पूर्ति के लिए वे सान्दीपनि मुनि के गुरुकुल में प्रविष्ट हुए। इन्हीं गुरु के आश्रम में रहते हुए श्रीकृष्ण का अपने एक गुरुभाई सुदामा के साथ वह चिर- मित्रभाव स्थापित हुआ जो कि युग-युग के लिए सच्ची मित्रता का एक अनुकरणीय उदाहरण बन गया।

                श्रीकृष्ण का दुष्ट राजाओं से युद्ध

    विद्याध्ययन समाप्त होते न होते कृष्ण को पुनः अनेकानेक राजनीतिक समस्याओं में उलझना पड़ा। मगध का राजा जरासन्ध कंस का साला था। उसने जब यह सुना कि कृष्ण ने कंस को मार दिया है तो उनसे बदला लेने के लिए उसने मधुरा पर चढ़ाई कर दी। बलराम और कृष्ण की सेना से जरासन्ध की विशाल वाहिनियों का घमासान युद्ध हुआ। अन्त में जरासन्ध को पराजित होकर रणक्षेत्र से हट जाना पड़ा। वह अपनी पायल और हारी हुई सेना को घसीटता हुआ मगध देश को वापस चला गया। यहीं से कृष्ण के लोक हित में किये गये युद्धों की वह श्रृंखला प्रारम्भ होती है, जिसने उन्हें असुरारि, मुरारि आदि वीरता-सूचक नामों से प्रसिद्ध किया।

                श्रीकृष्ण  द्वारा द्वारकापुरी का निर्माण 

       इस आशंका से कि मथुरा के समीप रहने से कहीं व्यर्थ के राजनीतिक संघयों में और न फंस जाना पड़े, कृष्ण अपने साथियों को लेकर पश्चिमी समुद्र के किनारे एक सुन्दर द्वीप में जा बसे, जहाँ अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रयोग कर उन्होंने संसार को चकित करने वाली द्वारकापुरी का निर्माण किया परन्तु वहाँ जाकर भी वे संसार की ओर से निश्चिन्त नहीं हो गये। देश के किसी भी भाग में किसी भी आततायी द्वारा किन्हीं सज्जनों को या वहाँ की प्रजा को कष्ट दिये जाने की सूचना पाते ही वे कभी अकेले और कभी सेना सहित वहाँ चढ़ाई कर देते और अत्याचारी का संहार कर उसके किसी योग्य सम्बन्धी को राजगगद्दी पर विठा देते। उन्होंने इस प्रकार कई आततायियों का संहार किया और अनेक राजसिंहासन रिक्त किये, परन्तु कभी किसी के राज्य अथवा वैभव का एक कण भी उन्होंने अपने पास नहीं रखा। जिन आततायी शत्रुओं के सिर उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से काट-काटकर गिराये, उनकी सूची बहुत लम्बी है। शृगाल कालयवन, रुक्मी, नरक, निकुम्भ, वज्रनाथ आदि कई प्रचण्ड अत्याचारियों तथा लोकशत्रुओं का नाश करने के अतिरिक्त वाणासुर जैसे अनेक अजेय समझे जाने वाले योद्धाओं को भी उन्होंने परास्त किया।

                  श्रीकृष्ण का मित्र प्रेम

कृष्ण मित्रता निभाने के लिए भी बड़े प्रसिद्ध थे। उनकी अर्जुन की मित्रता आज भी आदर्श मानी जाती है। उनके निरहंकार स्वभाव तथा निस्वार्थ मंत्री - भाव का दूसरा उदाहरण हमें कविवर नरोत्तमदास रचित सुदामाचरित' में मिलता है। सान्दीपनि गुरु के पास सुदामा और श्रीकृष्ण साथ-साथ पढ़े थे। श्रीकृष्ण अपने अद्भुत पराक्रम तथा बुद्धिबल से द्वारकाधीश की स्थिति तक जा पहुंचे। उधर सुदामा सात्विक ब्राह्मण-वृत्ति से अपना जीवन यापन करते रहे। परिस्थितियों की मार कुछ ऐसी रही कि सुदामा को बहुत ही गरीबी के दिन देखने पड़े। उनकी पत्नी को ज्ञात था कि सुदामा श्रीकृष्ण सहपाठी रहे हैं। अतः वह प्रायः उन्हें कृष्ण के पास जाने के लिए कहती रहती थीं। स्वभाव से संकोची सुदामा को यह बात नहीं जंचती थी। किन्तु अन्ततः प्रेमपूर्ण आग्रह की विजय हुई और सुदामा द्वारका के लिए चल पड़े। सोचते जाते थे कि बदली हुई परिस्थितियों में न जाने श्रीकृष्ण मुझसे कैसा व्यवहार करेंगे। यों ही संकल्प विकल्प करते-करातें किसी प्रकार के द्वारकापुरी जा पहुंचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उस पुरी का जो ठाठ-बाट देखा उससे रहा सहा साहस भी जाता रहा। जाने कैसे साहस बटोरकर वे कृष्ण के द्वार तक पहुँच पाये। किन्तु यह क्या ? सुदामा के आगमन का समाचार पाकर कृष्ण तो ऐसे दौड़े जैसे वे न जाने कब से इसी संवाद की प्रतीक्षा कर रहे थे।  उच्च पद पाकर मद किसे नहीं आ जाता ? किन्तु संसार में कृष्ण जैसे निकल ही जाते हैं, जिन पर पद, धन, शक्तियां, विद्या आदि किसी मदोन्मत्तकारी प्रभाव नहीं पड़ पाता। सुदामा जैसे अकिंचन ब्राह्मण के साथ भी अपने मैत्री - भाव को जिस सच्चाई और निष्ठा के साथ निभाया, वह अपने मित्रता का एक अप्रतिम उदाहरण है और इसीलिए श्रीकृष्ण के उस परम सच्ची उदात्त चरित्र को जानने और समझने वाले व्यक्ति को तनिक भी आश्चर्य नहीं होता।  किस प्रयोजन से सुदामा द्वारकापुरी बाए थे, यह श्रीकृष्ण भली प्रकार जानते थे, किन्तु कोई भी सहायता रूप भेंट सीधे ही सुदामा के हाथों में रखने पर उन्हें स्वभावतः मंकोच होता, अतः श्रीकृष्ण ने जान-बूझ कर वैसा नहीं किया। प्रेम से ही मिले और प्रेम से विदा कर दिया; किन्तु जब तक सुदामा लौटकर पर पहुंचे, तब तक वहाँ उन्होंने सभी व्यवस्था करा डाली। सुदामा ने घर आकर क्या पायादीनावस्था में भी मित्र के साथ पूर्ववत् समभाव से बरतने वाले, उसकी संकटापन्न अवस्था से इस प्रकार द्रवित और मर्माहत हो जाने वाले तथा उसके आत्मसम्मान और आत्मगौरव की भावना को तनिक भी ठेस लगाए बिना उसकी यथोचित सेवासहायता कर देने वाले श्रीकृष्ण की उस महान् मैत्री जैसा उदाहरण और कहां मिलेगा ?

श्रीकृष्ण की हस्तिनापुर तथा इन्द्रप्रस्थ की राजनीति में भी सक्रिय भूमिका और महाभारत युद्ध

आगे चलकर स्वकुल की विविध राजनीतिक उलझनों को सुलझाने के साथसाथ श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर तथा इन्द्रप्रस्थ की राजनीति में भी सक्रिय भाग लेना पड़ा। एक बार वसुदेव और उग्रसेन कृष्ण-बलदेव को लेकर स्नान के लिए कुरुक्षेत्र गए। उन्हीं दिनों वहाँ पाण्डवों की माता कुन्ती भी अपने पुत्रों सहित आई हुई थीं। बस यहीं कृष्ण और पाण्डवों के बीच उस घनिष्ठ सम्बन्ध का सूत्रपात हुआ कि जिसके कारण आज तक हम योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धर पार्थ का एक साथ स्मरण करते हैं। कृष्ण की राजनीतिक बुद्धि निस्सन्देह अद्भुत थी। महाभारत युद्ध का निश्चय हो जाने पर जब पाण्डवों की ओर से अर्जुन और कौरवों की ओर से दुर्योधन उनके पास सहायता मांगने पहुंचे तो जहां दुर्योधन ने उनकी विशाल सेना को सहायता के रूप में प्राप्त कर अपने आपको अधिक बलशाली माना, यहां अर्जुन केवल निशस्त्र श्रीकृष्ण को पाकर ही संतुष्ट और प्रसन्न थे। अपने इस चुनाव की चर्चा करते हुए अर्जुन ने ठीक ही कहा था कि "युद्ध न करने पर भी कृष्ण मन से जिसका अभिनन्दन करें, वह सब शत्रुओं पर विजयी होगा। अतः यदि मुझे वज्रधारी इन्द्र और कृष्ण में से एक को लेना पड़े, तो में कृष्ण को ही लूंगा।" कारण स्पष्ट था। कृष्ण की बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता अनुपम थी। उनकी पारदर्शिनी राजनीतिक बुद्धि को लक्ष्य में रखकर ही एक बार घुतराष्ट्र ने भी यह मत व्यक्त किया था कि "जब तक रथ पर कृष्ण, अर्जुन और गाण्डीव धनुषये तीन तेज एक साथ हैं, तब तक ग्यारह अक्षौहिणी सेना होने पर भी कोरवों की विजय असम्भव है।"

     महाभारत का युद्ध भारतीय इतिहास की एक अति वारुण घटना है। इस युद्ध में दोनों ही पक्षों के भारत के श्रेष्ठतम वीर खेत रहे। देश की सर्वोत्तम प्रतिभा का व्यापक संहार इस युद्ध के कारण हुआ। कृष्ण इस युद्ध के भीषण परिणाम को जानते थे। अतः उन्होंने इस युद्ध को रोकने के लिए जो कुछ सम्भव था, वह सब किया और तो और, वे स्वयं पाण्डवों की ओर से दूत बनकर कौरवों की सभा में गए और उन्हें सन्धि के लिए तैयार करने का भरसक प्रयत्न किया। इतना ही नहीं, उन्होंने पाण्डवों को केवल पाँच गाँव प्राप्त करके ही सन्तोष कर लेने तक के लिए तैयार कर लिया। उधर धृतराष्ट्र भी समझौता चाहते थे, पर दुर्योधन के आगे चल न सकी। कृष्ण ने दुर्योधन से बहुत-बहुत कहा, "हे तात ! शान्ति से ही तुम्हारा तथा जगत का कल्याण होगा।" पर दुर्भाग्य से दुर्योधन को शांति या संधि की कोई भी बात पसन्द नहीं आई। उसका दो टूक उत्तर था, "केशव में एक सूई की नोक जितनी भूमि भी बिना युद्ध के नहीं दूंगा।" कृष्ण के सत परामर्श का धृतराष्ट्र के अतिरिक्त भीष्म और द्रोण ने भी समर्थन किया, किन्तु दुर्योधन के हठ के आगे उनकी भी कुछ नहीं चली। दुर्योधन ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा, और अन्त में महाभारत का वह संहारकारी महायुद्ध होके पूरे बुद्ध में कृष्ण निश्शास्त्र ही रहे। हाँ, अपने बालसखा अर्जुन के रथ का सारथीत्व उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। यह उनकी निरहंकार वृत्ति का सुन्दर उदाहरण है। उन्होंने सम्पूर्ण निष्ठा और निश्चय के साथ पाण्डवों की सहायता की। भीष्म ने तो युधिष्ठिर को आशीर्वाद देते हुए कह ही दिया था कि

"यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः" अर्थात् जिधर धर्म होगा, उधर कृष्ण होंगे और जिधर कृष्ण होंगे, उधर विजय अवश्य होगी। युद्ध के प्रारम्भ में अपने गुरुजनों इष्ट मित्रों एवं बन्धुओं के संहार की कल्पना से भिन्न तथा असम्मान अर्जुन को उत्साहित कर कर्तव्य पालन में तत्पर करने की दृष्टि से योगेश्वर कृष्ण ने जो उपदेश दिया था, वह महाभारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना कही जा सकती है। इस अमर उपदेश को महाभारत के रचयिता व्यास मुनि उत्साहवर्धक है। फल की चिता से मुक्त होकर कर्तव्य पालन को ही सुखी और सफल जीवन की कुंजी कहा जा सकता है। 

               श्रीकृष्ण द्वारा गीता का ज्ञान

         गीता में श्रीकृष्ण ने सार पूर्वक कहा है यदि मनुष्य अनासक्त होकर निःस्वार्थ भाव से अपना कर्तव्य करें तो कर्म आत्मा के लिए बन्धन का कारण नहीं होता। मनुष्य के बन्धन और दुःख का कारण कर्म नहीं, बल्कि आसक्ति है। अतः मनुष्यों को सुख-दुःख या हानि-लाभ की चिन्ता किए बिना निःस्वार्थ भाव से अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए। गीता का कर्मयोग श्रीकृष्ण की मानव जाति को महती देन है। कई महान् सन्तों और प्रकाण्ड विद्वानों ने गीता पर भाध्य या टीकाएँ लिखी हैं और उसके श्लोकों के नये-नये अर्थ निकाले हैं। संसार के महान् दर्शन-ग्रन्थों में गीता का विशिष्ट स्थान है। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने बचपन में निःस्वार्थ स्नेह और बाल्यांचित क्रीड़ा, युवावस्था में वीरता और साहस तथा परिपक्व आयु में राजनीति और गहन दार्शनिकता का सुन्दर उदाहरण हमारे सामने रखा। भारत के नर-नारियों ने उनके जीवन को आदर्श माना और इस प्रकार उनके हृदय में उस महा मानव के प्रति जो श्रद्धा और भक्ति उत्पन्न हुई, वह भी मिट नहीं सकती।


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