मानव-धर्म गीत/प्रार्थना
मानव-धर्म आबाद रहे...
अब तो कर दो प्रभुजी किरपा,
मानव-धर्म को सजा सकूँ ।
धर्म कभी ना कट्टर होवे ,
मानव-मानव से बचा सकूँ ।
अब तो कर दो……
पीड़ित भी हूँ ,कुंठित भी हूँ,
मन भी मेरा सुलग रहा ।
मानव-मानव को, क्षत-विक्षत करके,
मन ही मन क्यों पुलक रहा ?
उनको तुम सद्बुद्धि देना,
' विष ' को मैं भी पचा सकूँ ।
अब तो कर दो प्रभुजी किरपा,
मानव-धर्म को सजा सकूँ ।
धर्म कभी ना कट्टर होवे ,
मानव-मानव से बचा सकूँ ।
अब तो कर दो……
जग-जीवन यह जंगल जैसा,
डर मानव से डरा हुआ ।
आतंक-आग से जले मानवता,
उनका मन क्यों मरा हुआ ?
'अजस्र ' वो शक्ति मुझको दे दो,
सोए जमीरों को जगा सकूँ।
अब तो कर दो प्रभुजी किरपा,
मानव-धर्म को सजा सकूँ ।
धर्म कभी ना कट्टर होवे ,
मानव-मानव से बचा सकूँ ।
अब तो कर दो……
आग जो दी तुमने , मेरे हृदय में,
बुझे दीपकों को,जला सकूँ ।
मन को ही ना मैं ,दाहक कर लूँ ,
जग विस्फोट से बचा सकूँ ।
' सारथी ' मेरे , तुम बन जाओ,
' ग़दर ' तो मैं भी मचा सकूँ ।
अब तो कर दो प्रभुजी किरपा,
मानव-धर्म को सजा सकूँ ।
धर्म कभी ना कट्टर होवे ,
मानव-मानव से बचा सकूँ ।
अब तो कर दो……
धर्म-सनातन ,शुद्र घर जन्मा,
छूत-अछूत में भरमाया ।
जो गुणों , पांडित्य भी पाकर ,
क्यों ' दलित ' दर्जा पाया ?
मन से दबे ,मन-कुचलों को मालिक ,
विश्वास तुम्हारा बंधा सकूँ ।
अब तो कर दो प्रभुजी किरपा,
मानव-धर्म को सजा सकूँ ।
धर्म कभी ना कट्टर होवे ,
मानव-मानव से बचा सकूँ ।
अब तो कर दो……
रची थी तुमने, जो वो सृष्टि,
रंग विकृत क्यों आज हुए ?
जिस धरती , खुशियों हरियाली,
उसका रंग क्यों लाल हुए ?
रंग कल्पना ' अजस्र ' ही भर कर ,
आनंद-रंग को मैं जमा सकूँ ।
अब तो कर दो प्रभुजी किरपा,
मानव-धर्म को सजा सकूँ ।
धर्म कभी ना कट्टर होवे ,
मानव-मानव से बचा सकूँ ।
अब तो कर दो……
✍️✍️ *डी कुमार--अजस्र(दुर्गेश मेघवाल,बून्दी /राज.)*
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