*अंतरराष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस (25 नवम्बर ) पर विश्व की आधी आबादी को समर्पित......*
*हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले ….*
हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।
अधपक कच्ची कलियों को भी,
समूल ही डाल से तोड़ दिया।
आत्मा तक को नोंच लिया फिर,
जीवित माँस क्यों छोड़ दिया।
खुद के घर भी अरक्षित बनकर,
अपना सब कुछ लुटा बैठी।
गैरों की क्या बात कहूं मैं,
अपनों ने भाग्य निचोड़ लिया।
मेरी रक्षा कौन करेगा ,
कम्पित मन सोता जागे ।
हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।
गर्भ ,जन्म पर , दहेजअग्नि में ,
मार जीवित हमको फेंके ।
जिस्म हमारा ही , दुश्मन बन गया ,
लूट उसको ,बाजार बिके ।
तेजाब मिला ,चाहत के बदले,
सुंदर तन वो झुलस गया ।
जिसको हमने अपना माना,
कहाँ रहा अपना होके ।
हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।
देह की पूंजी तुझसे पाई ,
रक्षा इसकी कैसे करूँ ।
नौ माह में बनी सुरक्षित ,
अब क्या ,कैसे प्रबंध करूँ।
जन्म बाद के पल-पल,क्षण-क्षण,
मुझको डर क्यों लगता है।
युवपन तक भी पहुंच ना पाऊं,
उससे पहले जीवित मरुँ ।
राक्षस-भेड़िए क्या संज्ञा दूं ?
दया न क्यों, उन मन जागे ।
हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।
हे ! गिरधारी, लाज बचाने ,
कहां-कहां तुम आओगे।
अगणित द्रोपदियाँ बचपन लुट गई,
कैसे सबको बचाओगे ?
भरी सभा-सा समाज यह देखें,
बैठा है आंखें मूंदे ।
आह वो भरता, खुद ही डरता ,
अब कैसे इसे जगाओगे ।
*'अजस्र '* सहारा किसको मानूँ ,
कौन रहे मेरा होके ।
हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।
सीता तो अपहरित होकर भी,
लाज तो फिर भी बचा पाई।
मां की गोद जो दूर हुई मैं ,
जानू क्या मैं ,कौन कसाई।
रावण से कई गुना है बढ़कर,
उनका पाप,क्यों न जग डोले।
शेषनाग , विष्णु अवतारी ,
बोलो, कैसे धरा बचाई।
खून हमारे सनी हुई वह ,
डर-डर कर खुद ही काँपे।
हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।
✍✍ *डी कुमार--अजस्र(दुर्गेश मेघवाल,बून्दी/राज.)*
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