''एक शुभ प्रभात उदित ज्योतिर्मान रत्न"
अमूल्य रत्नों से परिपूर्ण जाज्वल्यमान भारत वसुन्धरा का अञ्चल कितना पवित्र, कितना सौभाग्यशाली और कितना अनोखा है यह किसी से छिपा नहीं है। यह रत्नगर्भा भरत भूमि अपने अन्तर में जहाँ असंख्य मणि मुक्तायें छिपाये बैठी है यहीं उसके अञ्चल में समय-समय पर ऐसे नररत्न भी पैदा हुए हैं जिनकी जीवन ज्योति से संपूर्ण भूतल जगमगा उठा। जिन्होंने चट्टान बनकर समय का प्रवाह रोक दिया। जो अपने लिए नहीं विश्व के लिए जीये। जीव मात्र की ममता समेटे जो जीवन को तिल-तिल जलाकर प्रकाश देते रहे। भूले भटके विपथगामी पथिकों में आशा का संचार कर उन्हें साहस के साथ उनकी मंजिल तक ले गये। जिनके पवित्र तेज के समक्ष समस्त अमानवीय एवं अपावन विचारों ने घुटने टेक दिये। माँ भारती के ये अमर पुत्र अपने पूर्वजों की थाती संभाल अतीत का ज्योति कलश ले साधना के पथ पर बढ़े तो पथ की बीहड़ता, उसका अन्धकार सब कुछ स्वयमेव नष्ट हो गया। मंजिल आरती लिये स्वागत में खड़ी मिली। उनका जीवन आज भी सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचकर वह ज्ञानज्योति बिखेर रहा है जिसके प्रकाश पर संसार सब कुछ न्योछावर करने को सन्नद्ध हैं। ऐसे विलक्षण पुरुष भारत में एक दो नहीं हुये हैं। इनकी एक विशाल मालिका है। इसी दिव्य मालिका के एक ज्योतिर्मान रत्न हैं स्वामी विवेकानन्द।
स्वामी विवेकानन्द जन्म एवं महानिर्वाण
12 जनवरी सन् 1863 ई० की पौष संक्रान्ति जब प्रकृति में संक्रान्ति हो रही थी, भगवान भास्कर अपनी राह बदल रहे थे। इसी वेला में कलकत्ते के सिमुलिया पल्ली में पिता विश्वनाथदत्त के घर में सूर्योदय के कुछ क्षण पूर्व ६ बजकर ४६ मिनट पर एक शिशु जन्मा। दत्त गृह आनन्द से भर गया। मंगल वाद्य बज उठे। पवित्र मातृभूमि ने उस दिन नव ऊषा ने उस नवजात शिशु का स्वागत किया। क्योंकि प्रकृति के साथ ही वह भी अपने जीवन में उत्कान्ति चाहती थी। सूर्यदेव के साथ वह भी अपनी राह बदलने को उत्सुक थी। इस कार्य के सम्पादन के लिए उसे चाहिये था एक ऐसा साहसी, सबल एवं तेजस्वी व्यक्तित्व, जो सबको सचेत कर सके सोनेवालों को झकझोर कर जगा सके। मृतप्रायः पड़े भरत पुत्रों को, ऋषियों की सन्तानों को जीवन दान दे सके। उस दिन जब ऐसे ही व्यक्तित्व का धनी माता की गोद में उतरा तो फिर उसका स्वागत वह कैसे न करती ?
शिशु वाराणसी के वीरेश्वर महादेव की आराधना के प्रसाद रूप में जन्मा था। अतः उसका नाम रखा गया 'वीरेश्वर' माता उसे प्रेम से पुकारती 'बिले' और पिता ने कहा मेरे पुत्र का नाम होगा- नरेन्द्रनाथ' ! लेकिन शायद उन्हें यह पता नहीं था कि यह नाम भी अतीत की धुंधली स्मृतिमान बनकर रह जायगा और विश्व नरेन्द्र को विवेकानन्द के रूप में जानेगा, उसी रूप में उसकी वन्दना करेगा। आध्यात्मिक साधना, अपूर्व चारित्र्य, प्रखर स्वदेश प्रेम, दीनों दुखियों और दलितों की ममता से परिपूर्ण तेज वीर्य ज्ञान से विभूषित भारत ही नहीं अपितु विश्व मानवता का त्राता बन जायेगा।
रामकृष्णदेव ने दक्षिणेश्वर में एक बार उनका उल्लेख करते हुए कहा था कि "नरेन्द्र ध्यान सिद्ध पुरुष है। जिस दिन वह जान सकेगा कि वह कौन है, उस दिन इस संसार में नहीं रहेगा। दृढ़ संकल्प के द्वारा योग मार्ग से शरीर छोड़कर चला जायगा।"
04 जुलाई सन् 1902 ई० को प्रातः काल से ही स्वामी जी अपनी सामान्य स्थिति में नहीं थे। आज वे उद्विग्न से इधर-उधर घूमते बैठते, बाते करते पर उन की व्याकुलता में कोई कमी न आती। उनका भावावेश बढ़ते हुए सूर्य ही के साथ बढ़ता ही जा रहा था काली 'मां' के मन्दिर में गये तो घन्टो भाव समाधि में बैठे रहे। उन्हें देखकर ऐसा लगता था कि जैसे उनका कुछ खो गया है। मानो वे किसी अमूल्य निधि की खोज कर रहे हो, किसी अप्राप्य की प्राप्ति की कामना उन्हें सता रही हो। उनको उद्विग्नता इस सीमा तक बढ़ गई कि टहलते टहलते बीच-बीच में स्वयं से ही बोल उठते है कोई जो समय की चुनौती स्वीकार कर इन ऋषि सन्तानों को पतन की ओर जाने से बचा सके जो इस भौतिकवाद के चका चोंच में मानव को उसका जीवनोद्देश्य बता सके, उसको राह दिखा सके ?" शायद वे उस विवेकानन्द की खोज में थे जो उनके अधूरे कामको पूराकर स्वामीजी द्वारा प्रज्ज्य- लित ज्योति को सदा जलाये रखता। इस जीवन की अन्तिम बेला में सम्भवतः यह कमी ही उनकी व्यथा का कारण थी। दिन भर नरेंद्र मानसिक कष्ट, किसी अज्ञात आन्तरिक यंत्रणा एवं विचारों के उहापोह में वे इधर-उधर नुमते रहे। कहीं भी विश्राम न मिलता। यहाँ तक कि 'मां' मन्दिर में भी नहीं अनन्त की ओर 'मां' काली के मन्दिर में सांन्य पूजा की घण्टी बजी तो वे भी अपना जीवन पुष्प लेकर अर्चना के लिये आ पहुंचे। यह उनके जीवन के उस पार्थिव शरीर के माध्यम से अन्तिम पूजा थी। आरती के दीप जले तो उन्होंने उन दीपों में जैसे कुछ अनोखी वस्तु देख ली हो । मन्दिर से निकल आये आश्रम के सबसे ऊपरी भाग में जा खड़े हुए। वहां से ठीक सामने जहां पूज्य गुरुदेव का महासमाधि स्थल था। वे अपलक उसकी ओर भावविभोर हो देखते रहे। कब तक देखते रहे इसका ध्यान उन्हें भी नहीं रहा। उनकी आंखें खुली तो अपने को एक तकिये के सहारे लेटा पाया। स्वामी जी की गीली आखें किसी असह्य वेदना की स्पष्ट सूचना दे रही थी। उस दिन शायद उन्हें रामकृष्ण देव द्वारा बताये गये उस रहस्य का पता चल गया था कि यदि नरेन्द्र जान जायगा कि वह कौन है ? तो फिर इस दुनियाँ में न रहेगा।" और सम्भवतः इस ज्ञानका कपाट खोलने की वह चाभी जो गुरुदेव ने अपने पास रख ली थी आज उन्हें वापस कर दी थी। समस्त विश्व मानवता का सम्बल, 'मां' भारती का तेजस्वी सपूत आज सबको असहाय करके जाने को तैयार हो रहा था। आरती के उन दीपों में उसने अपने जीवन का प्रकाश देखा था। सत्र के देखते ही देखते एक लम्बी सांस खींच कर वे उस दिव्य ज्योति में मिल गये जिसके अंश ये सप्तर्षि मण्डल का ऋषि अपने पूर्व स्थान पर चला गया। शिष्यों ने देखा स्वामी जी अब नहीं रहे। शेष रह गया आभा से प्रदीप्त उनका पार्थिव शरीर और छोड़ गये वे संसार के लिए वेदान्त की वाणी, मानवात्मा के अमरत्व एवं एकत्व का सन्देश, स्वाधीनता एवं स्वदेश प्रेम की यह धधकती ज्वाला जो भारत माता के कोटि-कोटि सपूतों का अन्तस् दिप जलाकर उन्हें सदा जगाये रखेगी जो भूले भटके मानवों को मार्ग दिखाती रहेगी ।
स्वामी विवेकानंद की शिक्षाऐ
युवशक्ति को प्रबोधित करने के लिए स्वामीजी के विचार आज भी भारतवर्ष के युवाओं की आत्मा को तेजीदीप्त करते हुए उनके हृदय में नवीन शक्ति और प्रेरणा का संचार कर रहे है।
आज की यह परिस्थिति स्वामी विवेकानन्दके सन्देश को एक नया महत्व प्रदान करती है। इसका कारण यह है कि उनका सन्देश शक्ति का था जिसमें शारीरिक शक्ति, मानसिक शक्ति और इच्छा-शक्ति का समावेश किया गया था। यही शक्ति आज के समय की सबसे महती आवश्यकता है । स्वामी विवेकानन्द ऐसे राष्ट्र-शरीर की रचना करना चाहते थे "जिसकी मांसपेशियाँ लोहे की और शिराएं इस्पात की बनी हों और उसके अन्दर वज्र के समान मस्तिष्क हो ।" वे अपने देशवासियो के अन्दर शक्ति, पौरूष, क्षत्रिय वीर्य के साथ ही ब्रह्म तेज का आरोपण कर उसका विकास करना चाहते थे । संक्षेप में यही वे वस्तुएं हैं जिनकी इस विनाश और सकट के काल में हमें सर्वाधिक आवश्यकता है और यही वे गुण हैं जिनकी स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् विदेशों से उधार लिए गए भौतिकवादी दर्शन और ऐहिक जीवन को ही सार-सर्वस्व समझने के कारण हमारे द्वारा सतत् अवहेलना एवं उपेक्षा की गयी है।
यदि हम संक्षेप में स्वामीजी की शिक्षाओं का निरूपण करना चाहें तो हम यही कहेंगे कि उन्होंने हमें एक महान् मंत्र दिया और वह मन्त्र यह कि ईश्वर में विश्वास करो, अपने आपमें विश्वास करो। अपने आपमें विश्वास का भाव उपनिषदों के उस महान सत्य पर आधारित है जो उद्घोष करता है कि "मैं आत्मा हूँ। मुझे तलवार काट नहीं सकती, कोई शस्त्र छेद नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती और न वायु सुखा सकता है। मैं सर्व व्यापक हुं में सर्वज्ञ हूं ।" यही वह मंत्र है जिसे स्वामी विवेकानन्द अपने देशवासियों के कानों में सतत फूकते रहे। उन्होंने जो कुछ कहा अथवा उपदेश किया उसका आधार यही मंत्र था । यही समय है जब हमें इस मंत्र के आभ्यायन्तरिक अर्थ को हृदयंगम कर उसका अनुसरण करना चाहिए। यदि हमने ऐसा किया तो पृथ्वी पर विद्यमान कोई शक्ति हमें पराभूत नहीं कर सकेगी।
उन्होंने इसके पश्चात् घोषणा की कि मोक्ष प्राप्ति के लिए हमें पहले अपने धर्म का पालन करना होगा। वस्तुतः धर्म के बिना मोक्ष प्राप्ति होती भी नहीं। आज जबकि अपने अज्ञान के कारण हमें अपना धर्म भारस्वरूप प्रतीत हो रहा है इस सत्य का पुनराग्रह और भी अधिक आवश्यक हो गया है। इस प्रकार वास्तव में उन्होंने न केवल गृहस्थ के जीवन को पुनर्व्यवस्थित किया वरन् उसे एक नवीन गौरव भी प्रदान किया। उन्होंने अपने देशवासियों को उन शास्त्रों का स्वरण दिलाया जो 'वीर भोग्या वसुन्धरा' का उद्घोष करते हैं और वीर-वृद्धि को प्रगट करने का आदेश देते हैं स्वामी जी हमें यह स्मरण रखने का निर्देश देते हैं कि शास्त्रों में हमें उन नैतिक परिस्थितियों की, जिनके अन्तर्गत हम रह रहे हैं और हमें कार्य करना है, सत्ता को स्वीकार करके चलने को कहा गया है। अपनी परिस्थितियों एवं वातावरण को इस प्रकार स्वीकार करके ही हम उनका सुधार करने एवं उन्हें ऊपर उठाने की आशा कर सकते है अतः स्वामीजी ने अपने धर्म से अपने को विस्मरण न करने का आग्रह कर कहा कि परिस्थितियों के अनुरूप साम-दाम-दंड और भेद के राजनीतिक उपायों का उपयोग कर अपने विरोधियों पर विजय प्राप्त करते हुए संसार का उपभोग करो तभी तुम सच्चे धार्मिक कहला सकोगे। अथवा अपमानों को सहकर तुम एक तिरस्कृत जीवन बिताने को बाध्य होओगे। जब अपनी इच्छानुसार कोई भी व्यक्ति तुम्हें दुत्कारे या अपमानित करे तो तुम्हारा यह जीवन तो नरकमय हो ही जायगा, परलोक भी सुखमय नहीं हो सकेगा ।
अपने इतिहास के उस कठिन काल में जबकि सम्पूर्ण राष्ट्र अपनी अमूल्य स्वाधीनता, अपनी श्रेष्ठ जीवन प्रणाली, अपने स्वधर्म और अपने भविष्य की रक्षार्थं शस्त्र उठाने को बाध्य हुआ है, स्वामीजी का यह संदेश हमारे निश्चय को दृढ़ एवं हमारी शिराओं को वज्र-तुल्य बनाने में बहुत अधिक सहायक होगा उन्होंने पुनः हमें सन्देश दिया कि "भारत की राष्ट्रीय एकता देश की विभिन्न अध्यात्मिक शक्तियों के एकत्रीकरण द्वारा ही संभव है।" उनका मत था कि "भारत के राष्ट्रीय ऐक्य के लिए समान अध्यात्मिक राग से झंकृत हृदयों का मिलन अनिवार्य है।" इस संदेश का हमें विशेष रूप से मनन करना होगा, विशेषकर आज की परिस्थिति में जब कि राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र की संपूर्ण शक्तियों का त्वरित सक्रिय होना सबसे बड़ी आवश्यकता बन गयी है।
स्वामीजी ने हिन्दू राष्ट्र को एक और संदेश दिया। उन्होंने हमें अपने हृदयों के अज्ञानतम को दूर करने का आह्वान किया। इसका कारण यह है कि तम अथवा अज्ञान ही शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता, रूढ़िवादिता, मानसिक क्षुद्रता, पारस्परिक कलह और हृदय दौर्बल्य जैसे दोषों को उत्पन्न करता है। इन दोषों से मुक्त होकर हम शक्तिशाली संगठन और एकता की अभेद्य चट्टान खड़ी करके अपनी पृथक-पृथक इच्छाओं के समन्वयकरण द्वारा अतीत से भी श्रेष्ठ भविष्य का निर्माण करने में सफल हो सकेंगे। स्वामीजी का यह संदेश भी अत्यन्त सामयिक है। इसका कारण यह कि जिस संकटपूर्ण स्थिति का हम सामना कर रहे है ऐसे समय में ही राष्ट्रों को आत्म-निरीक्षण और अतीत का पुनर्वेक्षण करने का अवसर मिलता है ।
स्वामीजी के उपदेशों और लेखों में दर्शन, धर्म, समाज-शास्त्र और कला, संगीत एवं पुरातत्व संबंधी सामग्री भी समाविष्ट है। इस प्रकार उनके द्वारा प्रतिपादित विषय लौकिक एवं अध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों से सम्बद्ध हैं। जो अपने अतीन की गौरव गाथा से संबंधित हैं और जिनमें राष्ट्र की दुरवस्था के कारणों का विवेचन करते हुए स्वर्णिम एवं उज्ज्वल भविष्य निर्माण करने का संकेत किया गया है । अत उनके उपदेश, उनकी वाणी नोजवानों के कानों में गुंजायमान हो प्रगति पथ पर बढ़ने हेतु प्रेरित करती है, उन्होंने युवाओं से आह्वान किया था कि युवावस्था मानवजीवन का अत्यन्त महत्वपूर्ण काल है। इसी अवस्था में मानव की अन्तनिहित अनेकविध शक्तियां विकासोन्मुख होती है। संसार के राजनैतिक, सामाजिक या धार्मिक क्षेत्र में जो भी हितकर क्रांतीयां हुई उनका मूलस्रोत युवशक्ति ही रही है वर्तमान युग में मोहनिद्रा में मग्न हमारी मातृभूमि की दुर्दशा तथा अध्यात्मज्ञान के अभाव से उत्पन्न समग्र मानवजाति के दुःख क्लेश को देखकर जब स्वामी विवेकानन्द व्यथित हृदय से इसके प्रतिकार का उपाय सोचने लगे तो उन्हें स्पष्ट उपलब्धि हुई कि हमारे बलवान् बुद्धिमान् पवित्र एवं निस्वार्थ युवको द्वारा ही भारत एवं समस्त ससार का पुनरुत्थान होगा। उन्होने गुरुगम्भीर स्वर से हमारे युवको को ललकारा: " उठो, जागो-शुभ घड़ी आ गयी 'उठो, जागो तुम्हारी मातृभूमि तुम्हारा वलिदान चाहती है' उठो, जागो सारा संसार तुम्हे आह्वान कर रहा है।"
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