कागजी तितली


       *मकर सक्रांति पर्व पर विशेष....*


*कागजी तितली*


ठिठुरन सी लगे ,

सुबह के हल्के रंग रंग में ।

जकड़न भी जैसे लगे ,

देह के हर इक अंग में ।।


उड़ती सी लगे,

धड़कन आज आकाश में।

डोर भी है हाथ में, 

हवा भी है आज साथ में।


पर कागजी तितली…..

लगी सहमी सी 

उड़ने की शुरुआत में ।

फैलाये नाजुक पंख ,

थामा डोर का छोर…

हाथ का हुआ इशारा,

लिया डोर का सहारा …

डोली इधर से उधर,

गयी नीचे से ऊपर 

भरी उमंग से ,

उड़ने लगी 

जब हुई उड़ती तितलियों के ,

साथ में ,

बतियाती जा रही है ,

पंछियों के पँखों से ….

होड़ सी ले रही है, 

ज्यों आसमानी रंगो से 

हुई थोड़ी अहंकारी,

जब देखी अपनी होशियारी ।

था दृश्य भी तो मनोहारी,

ऊँची उड़ान थी भारी ।


डोर का भी रहा सहारा ,

हाथ करता रहा इशारा ,

तभी लगी जाने किसकी नजर ,

एक पल में जैसे थम गया प्रहर ,

लग रहे थे तब हिचकोले , 

यों लगा जैसे संसार डोले ।


डोर से डोर थी ,

अब कट गयी ।

इशारे की बिजली भी ,

झट से गयी ।

अब तो हवा भी न दे पायी सहारा

घड़ी दो घड़ी का था ,

अब खेल सारा ।

ऊँची ही ऊँची उड़ने वाली ,

अब नीचे ही नीचे आयी ।

जो आँखे मदमा रही थी ,

अब तक…..

उनमें अंधियारी थी छायी ।


तभी उसे लगा ,

अचानक एक तेज झटका 

डोर लगी तनी सी,

लगे ऐसा जैसे मिल गया ,

जो सहारा था सटका।

डोर का पुनः मिल रहा था ,

' अजस्र ' सहारा ।

हाथ और थे पर ,

मिल रहा था बेहतर इशारा ।

फिर उडी आकाश में ,

तब बात समझ ये आई 

बिना सहारे ,बिना इशारे ,

न होगी आसमानी चड़ाई  ।

जीवन सार समझ आया तो,

वो हवा में और अच्छे से लहराई।


     ✍️✍️ *डी कुमार –अजस्र (दुर्गेश मेघवाल, बून्दी/राज.)*

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