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एक शिक्षक होने के नाते मेरा पहला प्रयास। पालको के साथ मेरी पहली सफल शैक्षिक संगोष्ठी जिससे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।
मैं सन् 1997 से जुलाई 2005 तक मा0 वि0 केशवपुरा में पदस्थ रहा, वहाँ रहते हुए मैने स्काउटींग में बेसिक एवं एडवांश कोर्स का प्रशिक्षण लिया तथा इसमे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। मैंने सीखा की बच्चे के कोमल बालमन में कैसे झाँका जाए। कैसे उसे खेल-खेल में सुनागरिकता की शिक्षा दी जाए। कैसे उसे प्रकृति से जोड़ा जाए। कैसे उसमें सेवा, परोपकार, भलाई, जीवमातृ के प्रति दया भाव पैदा किया जाए। स्काउट के खेल, नियम प्रतिज्ञा तथा टोली विधि ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। मैने केशवपुरा में रहते हुए स्काउट दल का गठन कर दल के साथ विधिवत स्काउटिंग की गतिविधियों का संचालन किया। टोली विधि से कैसे बच्चों से कार्य करवाना। जैसे सेवा कार्य, खेल व विभिन्न स्पर्धाएँ का आयोजन। स्काउटींग के माध्यम से जो गतिविधियाँ मैने करवाई और जिनमें मुझे सफलता मिली उनमे से कुछ गतिविधियों को मैं साराशं में बताने का प्रयास कर रहा हुँ। शाला मे स्काउटींग गतिविधियाँ संचालित करने हेतु अपने संस्था प्रमुख एवं स्टॉफ को अपनी स्काउटांग गतिविधियों से प्रभावित कर विश्वास दिलाना जरूरी था। साथ ही पालकों से समंपर्क कर उन्हें तैयार करना कि वे अपने बच्चों को शाला समय के बाद स्काउटींग गतिविधियों के लिए भेजे।
जब मैने एक कार्य योजना बनाई और सभी बच्चों के पालको से संपर्क किया। विषय था बालकों की बात पालकों के बीच। मैने 15 दिनों तक शाला समय के बाद प्रत्येक बच्चे के घर जाकर उनके पालको से संपर्क किया। इस संपर्क के दौरान मैने बच्चों की जानकारी से संबंधित एक प्रश्नावली बनाई और पालकों से उनके बच्चों से संबंधित कुछ प्रश्न पुछे। जैसे आपका बच्चा कौंन सी कक्षा में पढ़ता है? आपके बच्चे की रुचियाँ/शौक क्या है? क्या आप अपने बच्चे के शैक्षिक स्तर से संतुष्ट हो अर्थात वह जिस कक्षा में है उसे उस कक्षा के स्तर का आ जाता है या नही? यदि आपका बच्चा पढ़ने में कमजोर है तो इसका जिम्मेदार कौन है? बालक, पालक या शिक्षक? तो मुझे पालकों से अनेक प्रकार के उत्तर मिले किसी ने कहा कि शिक्षक जिम्मेदार है, किसी ने कहा कि हमारा बच्चा ही जिम्मेदार है तो किसी ने कहा कि पालक याने कि हम खुद जिम्मेदार है। तब मैं पालकों से एक और प्रश्न करता कि क्या वे चाहते है कि उनका बच्चा भी पढ़े, उसको भी उसके स्तर तक पढ़ना लिखना आये। सभी ने एक स्वर में हाँ भर दी, तब मैने उन्हें बताया की 15 तारीख को पालकों की एक संगोष्ठी रखी है। इस प्रकार पुरे गाँव में एक माहोल बन गया। चर्चा होने लगी की जो सर है वे चाहते है कि हमारे बच्चे भी अच्छे पढ़े-लिखे तो हमे भी उनका सहयोग करना चाहिऐ। इस कार्य योजना के बारे में मेरे अन्य साथी शिक्षकों को पता नहीं था, और मैंने उन्हें इस बार बताया भी नहीं था क्योंकि वे मेरी बातों को हंसी में उड़ा देते थे। लेकिन कुछ दिनों में मेरे अन्य साथी शिक्षकों पता चल गया की गाँव के लोग रविवार को इकट्ठे होगें और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के बारे में बात करेंगें। तब कई प्रकार की शंका कुशंकाऐं उनके मन में उठने लगी। कुछ साथायों ने तो मुझे यहाँ तक कह दिया कि ऐसा करने से कहीं तुम्हें राष्ट्रपति का पुरस्कार नहीं मिलने वाला है। इस प्रकार तय दिन हमारी पालक, बालक और शिक्षकों की कार्यशाला आयोजित की। और ये मेरे जीवन की सफल संगोष्ठी रही। इसने ग्राम के सरपंच गजेंद्र जी सहित लगभग गांव के 50 पलको ने भाग लिया। क्या आपको लगता है कि एक शिक्षक होने के नाते हमें कुछ ऐसा समय समय पर करना चाहिए?
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